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अनेक गुणवाली ये वस्तुएँ अनन्तधर्मा हैं । वस्तु के गुणों को गिना जा सकता है । गुण वस्तु के स्वभाव हैं, वस्तु में ही रहते हैं और स्वयं निर्गुण होते हैं।' उनकी सत्ता निरपेक्ष है । इसके विपरीत वस्तु के धर्म अनन्त हैं । वे वस्तु में नहीं रहते । उनकी सत्ता सापेक्ष है। इसलिए वे किसी की सापेक्षता में ही प्रकट होते हैं । सापेक्षता गयी तो वह धर्म भी गया । परिप्रेक्ष्य या दृष्टि-विन्दु के बदलते ही दृश्य बदल जाता है । दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखने पर दूसरा दृश्य होता है । धर्म व्यवहार-क्षेत्रीय है । वस्तु का छोटा होना, बड़ा होना, पति, पिता पुत्र आदि होना व्यवहार और सापेक्षता का विषय है। इसीलिए रूप, रस, गन्ध आदि जहाँ गुण हैं वहीं छोटापन, बड़ापन, पतित्व, पितृत्व, पुत्रत्व आदि गुण नहीं; धर्म हैं।
अनन्त वस्तुओं के कारण अनन्त सापेक्षताएँ निर्मित होती हैं । सापेक्षताओं के गुण, मात्रा, लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, स्थान, काल आदि अनेक आधार होते हैं । वस्तु का अच्छा, भारी, लम्बा, चौड़ा, ऊँचा, दूर, प्राचीन आदि होना किसी सापेक्षता में ही होता है । सापेक्षता प्रस्तुत करने का कार्य केवल उसी वर्ग की वस्तु नहीं अन्य वर्गों की वस्तुएँ (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) उनके भेद और उनकी अनन्त संख्याएँ करती हैं । सापेक्षताओं से वस्तु के अनन्त धर्म निर्मित होते हैं। एक ही वस्तु अनन्त भूमिकाओं में होती है । एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भाई, गुरु, शिष्य, शत्रु, मित्र, तटस्थ आदि कितने ही रूपों या धर्मों में प्रकट होता है । हम किसी एक कोण से देख कर वस्तु का नामकरण कर देते हैं। नामकरण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को संकेतित नहीं करता । वस्तु के नाना धर्मों में से उसके केवल एक धर्म पर ही टिका होता है नाम । शब्दों पर व्यत्पत्ति और अर्थ की दृष्टि से विचार करते हुए आठवीं शताब्दी ईसा-पूर्व के भारतीय आचार्य यास्क ने वस्तु की इस अनन्त धर्मिता को अपने ढंग से अनुभव किया था--'स्थूणा (खम्भा) शब्द की व्युत्पत्ति स्था (खड़ा होना) धातु से मानी जाती है। यदि खम्भे को खड़ा होने के कारण स्थूणा कहा जाता है तो उसे गड्ढे में फंसे होने के कारण दरशया (गड्ढे में सा हुआ) और बल्लियों को सँभालने के कारण सज्जनी (बल्लियों को संभालनेवाला) भी कहा जाना चाहिये ।२
क्या हम वस्तु के एक धर्म को भी ठीक से देख पाते हैं ? मैं समझता हूँ, नहीं देख पाते । उदाहरण के लिए अध्यापक को लें। यह नाम व्यक्ति के, एक धर्म पर आधारित है। हमने उसके अन्य सभी धर्मों को नकार दिया। सौदा खरीदते समय वह खरीददार है, पुत्र को चाकलेट दिलाते समय पिता है। हमने इन सबकी ओर ध्यान नहीं दिया । यहाँ तक कि कक्षा पढ़ाने से सफलतापूर्वक बचते समय भी उसे अध्यापक कहा; लेकिन उसके इस एक धर्म अध्यापन के भी तो अनेक स्तर हैं--कभी उसने बहुत तेजस्वी अध्यापन किया होगा,
१. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:--तत्त्वार्थसूत्र ५।४० २. निरुक्त, १-११
तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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