Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 180
________________ जिनराज ताहि वंदत बनारसी।" और भैय्या भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में, "सिद्ध के समान है बिराजमान चिदानन्द, ताही को निहार निजरूप मान लीजिए ।।" कहकर सिद्ध किया है। तीसरा प्रश्न है कि जब आत्मा और परमात्मा का स्वरूप अभिन्न है, दोनों एक समान हैं, तो कौन किसकी ओर मुड़ता है और क्यों मुड़ता है ? आचार्य पूज्यपाद ने 'समाधितन्त्र' में आत्मा के तीन भेद बताये हैं---बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा वह है जो ब्रह्म के स्वरूप को नहीं देख सकता, परद्रव्य में लीन रहता है और मिथ्यावन्त है। अन्तरात्मा में ब्रह्म को देखने की शक्ति तो उत्पन्न हो जाती है, किन्तु वह स्वयं पूर्ण शुद्ध नहीं होता । परमात्मा आत्मा का वह रूप है, जिसमें शुद्ध स्वभाव उत्पन्न हो गया है और जिसमें सब लोकालोक झलक उठे हैं। अनुभूति-क्रिया में आत्मा के दो ही रूप काम करते हैं, एक तो वह जो अभी परमात्मपद को प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह जो परमात्मा कहलाता है। पहला अनुभूति-कर्ता है और दूसरा अनुभुति तत्त्व । पहला मुड़ता है और दूसरा वह लक्ष्य है, जहाँ उसे पहुँचना है । एक ही आत्मा के दो रूप-एक मिथ्यात्व में डूबा है किन्तु जगकर अन्तरात्मा होकर, दूसरे रूप-शुद्ध-विशुद्ध परमात्मा की ओर मुड़ता है । जीवन में बहुत मोड़ आते हैं; किन्तु आत्मा का यह मोड़ अनोखा होता है--सुहाग और ललक-भरा । प्रिय-मिलन की ललक, कौन तुलना कर सका है उसकी। अनिर्वचनीय की पियास जिसमें जग गयी, वह स्वयं अवक्तव्य हो जाता है; कौन कह सका है उसे ? कबीर की आत्मा भी ब्रह्म की ओर मुड़ी है, किन्तु थोड़ा-सा अन्तर है। कबीर ने जिस आत्मा का निरूपण किया है, वह विश्व-व्यापी ब्रह्म का खण्ड अंश है, जबकि जैन कवियों की आत्मा कर्म-मल को धोकर स्वयं ब्रह्म बन जाती है, वह किसी अन्य का अंश नहीं है। उसे अपने से भिन्न किसी 'पर' के पास नहीं जाना होता। वह स्वयं आत्मा है और स्वयं परमात्मा । मन जब संसार की ओर मुड़ा रहता है, तब आत्मा मिथ्यावन्त है, साधारण संसारी जीव है और जब मन अपने ही शुद्ध-विशुद्ध परमानन्द रूप की ओर मुड़ उठता है तो वह पहले अन्तरात्मा और फिर परमात्मा बन जाता है। __चौथा प्रश्न है कि जैन भक्त ऐसे भगवान् के चरणों में अपने श्रद्धा-पुष्प चढ़ाता है, जो स्वयं वीतरागी है, अर्थात् राग-द्वेषों से रहित है। वीतरागी होने से पूजा का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता और विवान्तवैर होने से निन्दा से वह विचलित नहीं होता। ऐसे भगवान् की पूजा, भक्ति, उपासना, अर्चना आदि करने से लाभ क्या है ? वह मोक्ष में बैठा है । यहाँ आ नहीं सकता । भक्त के दुःख दूर नहीं कर सकता। फिर ऐसे वीतरागी से राग का अर्थ क्या है ? राग कैसा ही हो, भले ही वीतरागी में किया गया हो, कर्मों के आस्रव (आगमन) का कारण है। इसका उत्तर देते हुए आचार्य समन्तभद्र मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक १८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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