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भर है। ऐसे भगवान् की भक्ति कोई भी भक्त निष्काम होकर ही कर सकता है । कुछ न देने वाले का दर्शनाकांक्षी निष्काम होगा ही, यह सत्य है। ऐसे प्रभु की दर्शनाकांक्षा भी होती है, तो वह कहाँ टिके ? प्रश्न यह है। एक सहारा है--वीतरागी के गुण, अर्थात् उसकी वीतरागता। निष्काम भक्त को वही भाती है। और वह वीतरागता स्वयं भक्त में मौजूद है, छिपी पड़ी है। वीतरागी के दर्शन से उसे ढूंढ़ने की प्रेरणा मिलती है--स्वतः इतना ही है । शर्त को कोई स्थान नहीं । लेन-देन से कोई मतलब नहीं ।
दूसरी बात, जैन भक्त को समर्पण करने अन्यत्र नहीं जाना पड़ता। वहाँ तो 'स्व' के प्रति 'स्व' को समर्पित करना होता है । जीवात्मा में परमात्म-रूप होने की भावना ज्यों ही जगती है, वह परमात्मा बन जाती है । जैसे सूर्य के प्रतापवान होने पर घन-समूह को विदीर्ण होना ही पड़ता है और सूर्य निराबाध ज्योतिवन्त हो उठता है, जैसे द्वितीया के चन्द्र के आगमन की इच्छा होते ही अमा की निशा को मार्ग देना ही पड़ता है और उसकी शीतल किरणें चतुर्दिक विकीर्ण हो जाती हैं, जैसे नदी की धार में मरोड़ आते ही पत्थरों को चूर्ण-चूर्ण होना ही पड़ता है और वह एक स्वस्थ प्रवाह लिए बह उठती है, वैसे ही आत्मा में समर्पण-भाव के उगते ही परमात्म-प्रकाश उदित हो उठता है । जब समर्पण के सहारे आत्मा स्वयं ब्रह्म बन सकती है, तो उसे अपना समर्पण सहैतुक बनाने की क्या आवश्यकता है ? सहैतुक तो वहाँ हो, जहाँ द्वित्व हो, जहाँ भेद हो, पृथक्करण हो । यहाँ तो एक ही चीज है । 'स्व' के प्रति 'स्व' का यह समर्पण जितना अहैतुक हो सकता है, अन्य नहीं ।
निष्काम भक्ति ही काम्य है । श्रीमद् भगवत् गीता में भक्ति की निष्कामता पर सर्वाधिक बल दिया गया है । 'कर्मण्यमेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्' इसी की एक कड़ी है। गीता ने संन्यास इसी को कहा, जिसमें काम्य कर्मों का न्यास हो । सच्चा त्याग वही है, जिसमें सर्वकर्म-फल-त्याग हो, जैसे---"काम्यानां कर्मणां न्यासं सन्यासं कवयो विदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागो विचक्षणा ।" इसी निष्कामता को लेकर गांधीजी ने अनासक्ति योग-जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की थी। जब तक निष्कामता न होगी, अनासक्ति हो ही नहीं सकती। अनासक्त हए बिना फल-त्याग असम्भव है। चिपकन तभी तक है, जब तक फल-प्राप्त करने की लालसा है। यदि कर्म मुख्य और फल गौण हो जाए तो व्यक्ति और समाज ही नहीं, राष्ट्र भी समुन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। फल गौण होता है अनासक्ति से और अनासक्ति आती है निष्कामता से । जैन ग्रन्थों में उसके सूत्र बहुत है। स्थान-स्थान पर प्राप्त होते हैं।
जैन भक्ति-मार्ग की विशेषता है--ज्ञानमलकता। ज्ञान-बिना भक्ति अन्ध है और भक्ति के बिना ज्ञान शुष्क है, असाध्य और असम्भव। जिस मानव-जीवन को हम ज्ञान के सूक्ष्म निराकार तन्तु से जोड़ना चाहते हैं, वह सरस पथ का अनुयायी है। वह अनुभूतिमय है, भाव और भावना-युक्त। इनको सहज रूप से सहेज कर ही
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