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में एक ही वस्तु में विविध विरोधी गण पाये जाते हैं। 'स्यात्' अर्थ की दृष्टि से 'सापेक्ष्य' के सबसे निकट है।
आइन्स्टीन के मतानुसार सत्य दो प्रकार के होते हैं--(१) सापेक्ष्य सत्य, और (२) नित्य सत्य।
आइन्स्टीन के मतानुसार हम केवल सापेक्ष सत्य को जानते हैं; नित्य सत्य का ज्ञान तो सर्व विश्वदृष्टा को ही हो सकता है।
___ जैन-दर्शन एकत्व एवं नानात्व दोनों को सत्य मानता है। अस्तित्व की दृष्टि से सब द्रव्य एक हैं, अतः एकत्व भी सत्य है; उपयोगिता की दृष्टि से द्रव्य अनेक हैं अतः नानात्व भी सत्य है।
वस्तु के गुण-धर्म चाहे नय-विषयक हों चाहे प्रमाण-विषयक, वे सापेक्ष होते हैं। वस्तु को अखण्ड भाव से जानना प्रमाण-ज्ञान है तथा वस्तु के एक अंश को मुख्य करके जानना नय-ज्ञान है।
विज्ञान की जो अध्ययन-प्रविधि है, जैन-दर्शन में ज्ञानी की वही स्थिति है। जो नय-ज्ञान का आश्रय लेता है वह ज्ञानी है। अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके ज्ञानी ज्ञान प्राप्त करता चलता है। एकान्त के आग्रह से मुक्त होने के लिए यही पद्धति ठीक है।
इस प्रकार भगवान महावीर ने जिस जीवन-दर्शन को प्रतिपादित किया है, वह आज के मानव की मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक दोनों तरह की समस्याओं का अहिंसात्मक समाधान है। यह दर्शन आज की प्रजातन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था एवं वैज्ञानिक सापेक्षवादी चिन्तन के भी अनुरूप है। इस सम्बन्ध में सर्वपल्ली राधाकृष्णन् का यह वाक्य कि" जैन-दर्शन सर्व-साधारण को पुरोहित के समान धार्मिक अधिकार प्रदान करता है" अत्यन्त संगत एवं सार्थक है। “अहिंसा परमो धर्मः'' को चिन्तन-केन्द्रक मानने पर ही संसार से युद्ध एवं हिंसा का वातावरण समाप्त हो सकता है। आदमी के भीतर की अशान्ति, उद्वेग एवं मानसिक तनावों को यदि दूर करना है तथा अन्ततः मानव के अस्तित्व को बनाये रखना है तो भगवान् महावीर की वाणी को युगीन समस्याओं एवं परिस्थितियों के संदर्भ में व्याख्यायित करना होगा। यह ऐसी वाणी है जो मानव-मात्र के लिए समान मानवीय मूल्यों की स्थापना करती है; सापेक्षवादी सामाजिक संरचनात्मक व्यवस्था का चिन्तन प्रस्तुत करती है; पूर्वाग्रह-रहित उदार दृष्टि से एक-दूसरे को समझने और स्वयं को तलाशने-जानने के लिए अनेकान्तवादी जीवन-दृष्टि प्रदान करती है; समाज के प्रत्येक सदस्य को समान अधिकार एवं स्व-प्रयत्न से विकास करने के साधन जुटाती है।
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तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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