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वर्तमान युग में महावीर की प्रासंगिकता महावीर को अहिंसा, उनका अनेकान्त, उनका अपरिग्रह, सभी प्राणियों को समान देखने की उनकी दृष्टि, 'जियो और जीने दो' का उनका नारा वर्तमान युग में हम सबको आकर्षित कर रहे हैं-अत्यन्त प्रासंगिक बने हुए हैं।
-सरोजकुमार
महावीर और हमारे बीच ढाई हजार सालों का फासला है। इस फासले में हमारी पचासों पीढ़ियाँ आईं और गईं। सैकड़ों प्रकार की शासन-व्यवस्थाएँ और शासक बने और मिटे । अनेक तर्क-पद्धतियाँ मनुष्य के मस्तिष्क को छूती हुई गुजरती रहीं। इन ढाई हजार संवत्सरों में मनुष्य ने भौतिक सुखों की अनेक दौड़ें जीतीं और विज्ञान को साधकर अनेक करिश्मे स्वयं के लिए पैदा किए। इस सब के बावजूद मनुष्य का चरित्र अपनी आदिम प्रवृत्तियों की परते परिमार्जित नहीं कर सका। वह ऊपर से सभ्य अवश्य बन गया, किन्तु भीतर असभ्य बना रहा । आकाश और पाताल को एक करने के बाद भी उसे इस बात का अहसास हो रहा है कि उसका परिश्रम सार्थक नहीं हुआ। जिस सुख की तलाश में वह भटकता रहा वह उसे नहीं मिला। और जिस किस्म का सुख उसे मिल सका है; वह उसे उबा अधिक रहा है। यह उसके होने और होना चाहने की स्थितियों के बीच फैली हुई जिन्दगी की त्रासदी है। आज वह अन्तर्राष्ट्रीय होकर भी अकेला है और सब कुछ के बीच भी न कुछ प्रतीत हो रहा है । और यही कारण है कि महावीर इन सैकड़ों वर्षों के अन्तराल को लांघकर आज भी अपने तपश्चरण की उपलब्धियों के कारण हमें हमारे लिए प्रासंगिक बने हुए मिलते हैं।
आज का मनुष्य अपने आप में टूटा हुआ खण्डित और अस्पष्ट प्राणी है। वह जो कह रहा है और जो कुछ कर रहा है उसमें भिन्नता है। वह अपनी स्वाभाविक प्रतिष्ठा के उद्देश्य से कहता कुछ ऐसा है, जो प्रीतिकर और श्रेयस्कर है; किन्तु करता वह वही है, जो उसके व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करे। उसमें कथनी और करनी का यह अन्तर इसलिए है कि हममें कथनी को मात्र शब्दोच्चार मान लेने की त्रुटि समा
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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