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महावीर : समाजवादी संदर्भ में
अाजादी के पच्चीस वर्ष बाद प्राज तृष्णा, बुभुक्षा, गरीबी-अमीरी, विपुलताविपन्नता की खाई और अधिक चौड़ी नजर आती है; फलतः करुणा-क्रोध के बीच समन्वयवादी दृष्टि प्रोझल है। करुणा निराशा में और क्रोध हिंसा में तेजी से बदल रहे हैं।
- धन्नालाल शाह
पच्चीस सौ वर्ष पूर्व भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति से आज की तुलना करना न तो बुद्धिमानी ही है और न ही तर्कसंगत; किन्तु यह असंदिग्ध है कि तत्कालीन योगी तीर्थंकर महावीर और गौतम बुद्ध को अहिंसा, अपरिग्रह-जैसे सिद्धान्तों के प्रतिपादन की ज़रूरत महसूस हुई थी इस दृष्टि से आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में तब और अब इन सिद्धान्तों की महत्ता एक जैसी ही है, सिर्फ तीव्रताओं में कमोबेश हुआ है ।
वैयक्तिक चरित्र-रचना की दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचा रित्र का त्रिभुज व्यक्ति को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करा सकता है । जेनाचार्य उमास्वाति का यह त्रिक “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' महावीर और उनके पूर्ववर्ती तेईस तीर्थंकरों का मूलमंत्र रहा है । स्वर्ग या मुक्ति का यह मार्ग व्यक्ति ही नहीं समाज, राष्ट्र और यहाँ तक कि संपूर्ण विश्व के लिए युगों-युगों तक अपरिवर्तित और यकसां मौजू है । राजकुमार महावीर, तपस्वी मुनि महावीर तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति-सुन्दरी का वरण करने वाले तीर्थंकर महावीर ने दर्शन; ज्ञान और चारित्र्य की त्रिवेणी से मनोमन्थन, वाणी-स्फुरण और कर्मानुशीलन द्वारा जिन रत्नों का पुनराविष्करण किया उनमें अहिंसा और अपरिग्रह उन आधारशिलाओं की भाँति प्रकट हुए, जिनमें सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य के महान् सिद्धान्त स्वयमेव समाविष्ट हैं ।
श्रावक यानी गृहस्थ के लिए महावीर ने इन व्रतों के साथ 'अणु' शब्द जोड़कर इन्हें 'अणुव्रतों' की संज्ञा दी और इनके क्रमिक परिपालन को सद्गृहस्थ या सभ्यजन; और समाज को सत्समाज, या श्रावक समाज कहा । अहिंसा से लेकर परिग्रह-परिमाणुव्रत की क्रमबद्धता में अहिंसा शीर्षस्थ और परिग्रह का सीमांकन अन्तिम कड़ी है।
महावीरयुगीन अहिंसा राजनयिक और वैदिक विकृतियों की उपज थी। तत्कालीन समाज के प्रभावशाली अंग क्षत्रिय और ब्राह्मणों की राज्यलिप्सा , कीर्ति
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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