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दिया। सुश्री रमारानी जैन और साहु शांतिप्रसाद जैन ने इसका स्वागत किया। ज्ञानपीठ ने मेरा लेखन-भार उठा लिया। और ज्ञानपीठ के एक आद्य स्वप्नदृष्टा और वर्तमान मंत्री श्रीयुत बाबू लक्ष्मीचंद्र जैन अपने मौन स्नेह और आत्मीय प्रेरणा से पत्रों द्वारा मेरी सृजन-साधना को बराबर ही सिंचित करते चले गये। पूज्य जैनेन्द्रजी, मातृ-पितवत् साहु-दम्पत्ति तथा भाई साहब लक्ष्मीचन्द्रजी के संयुक्त सारस्वत प्रेम की आधार-शिला पर ही 'मुक्तिदूत' का यह रोमानी रत्न-प्रासाद उठा। इन आत्मीयों के प्रति मेरी कृतज्ञता शब्दों से परे है।
कोटा के विश्वधर्म-न्यास के प्रमुख ट्रस्टी श्री त्रिलोकचन्द कोठारी, श्री मदनलाल पाटनी तथा श्री गणेशीलाल रानीवाला और उनके अन्य सहयोगियों ने, पूज्य मुनिश्री की प्रेरणा से, हमारी सरस्वती को जिस अपूर्व स्नेह-सम्मान से अभिषिक्त किया है, उसे आभार-प्रदर्शन की औपचारिकता द्वारा नहीं चुकाया जा सकता। मेरे इन्दौर काल के स्नेही साहित्य-संगी भाई श्री नाथूलाल जैन 'वीर' की आत्मीय क़लम के बिना यहाँ 'मुक्तिदूत' और उसके रचनाकार का यथेष्ट परिचय प्रकट होना असंभव था। गोपन प्रीति का यह प्रकाश मुझे कभी नहीं भूलेगा। और यह भी एक दिव्य संयोग ही है कि इन्दौर के होलकर कॉलेज के दिनों में मेरे किशोर विद्या-सहचर भाई अक्षयकुमार जैन के हाथों ही कवि के गले में यह पड़ी है। अक्षयभाई ने मेरे परिचय में अभी कहा था--'वीरेन्द्र तो वसन्त के पक्षी हैं, वे तो आज भी युवा ही हैं, किन्तु मैं तो बूढ़ा हो गया।' पर में कहना चाहता हूँ कि मैं वसन्त का पक्षी हूँ, तो अक्षय मेरे वसन्त हैं। और यह अभी प्रमाणित हो गया। उन्हीं के हृदय के वसन्ताकाश में यह कवि-पंछी अभी एक अजीब उड़ान की मुद्रा में आ गया है।
हमारे यग-शीर्ष पर बैठे हैं, कैवल्य-सूर्य तीर्थंकर महावीर : और उनकी जिनेश्वरी भगवती सरस्वती की कोख से ही मेरे कवि का जन्म हुआ है, और परम भागवद् विद्यानन्द स्वामी की प्रतापी गुरुमूर्ति से आज जिनशासन उद्योतमान है। इन तीनों को नमित माथ प्रणाम करता हूँ। और अन्त में अतिशय आभारी हूँ यहाँ उपस्थित हजारों श्रोताओं का, जिन्होंने मेरे शब्दों को ठीक मेरे साथ तन्मय होकर सुना है। आपका यह तदाकार स्नेहभाव मुझे जीवन में सदा याद रहेगा।......"
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शून्य के धनुष पर समय का शर धर, वेध दिया क्षर को मुक्त हुआ अक्षर ।
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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