Book Title: Tirthankar 1974 04
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 156
________________ इस युग के चरित्र - नायक, महाविष्णु महावीर स्वयम् ही क्या कम समर्थ है ? उनके चरित्र - गान में कवि लीन हो गया, तो चरितार्थ आकाश में से उतरेगा । "मेरा निर्णय बाह्य सम्पत्तिमान न बदल सके किन्तु स्वयम् परम लोकरंजन भगवान् ने अपने ही एक प्रतिरूप दिगम्बर योगी के माध्यम से मेरा निर्णय अपने हाथ में ले लिया ।" कवि को खोज रहा था : और कवि योगी को खोज रहा था । दो तलाशें मिलीं : और एक उपलब्धि हो गयी । मेरे मन में भगवान् पर महाकाव्य लिखने का अटल संकल्प था । महावीर से बढ़कर उसका विषय क्या हो सकता था ? अपने रस के आप ही उत्स थे महावीर : मनुष्य की हरसम्भव कामना की वे अन्तिम परिपूर्ति थे, परितृप्ति थे। सारे रसों के उद्गम थे वे परम परमेश्वर : और सारे रसों के परिपूर्ण समापन भी थे । काव्य के उन्मुक्त, ऊर्ध्व कल्प-उड्डयन के बिना उन अनन्त विराट् आकाश - पुरुष को शब्दों में बाँधने का और कोई उपाय नहीं है । इसीसे मेरा आग्रह था कि मैं भगवान पर महाकाव्य ही लिखूंगा और कोई विधा नहीं स्वीकारूँगा । सो अपना यह निश्चय मैंने मुनिश्री के समक्ष प्रकट किया ।" “दो टूक उत्तर में निर्णय दे दिया योगी ने : “महाकाव्य अवश्य लिखोगे, पर बाद में। पहले 'मुक्तिदूत' जैसा ही एक उपन्यास भगवान् पर लिख देना होगा । उपन्यास की लोकप्रिय विधा के द्वारा ही भगवान इस देश के कोटि-कोटि प्रजाजनों के हृदय तक पहुँच सकेंगे .....!' श्रीगुरु के उस अविकल्प आदेश को सामने पाकर मैं स्तब्ध हो रहा । मैंने फिर से अपने मनोभाव को अधिक स्पष्ट किया; किन्तु योगी का निर्णय अटल रहा। मैं विनत हो गया । इससे पूर्व मेरे कुछ क़द्रदान हितैषियों ने और श्री सम्पन्न स्नेहियों ने आग्रह किया था कि महावीर पर मैं फिलहाल काव्य नहीं, उपन्यास ही लिखूं : लोकप्रिय विधा में ही रचना करूँ। मुनिश्री का आग्रह भी यही था । मगर मैं पहले अपने निश्चय पर अडिग रहा, और उसकी खातिर उपन्यास के लिए प्रस्तुत आर्थिक प्रबन्ध की योजना को भी मैंने अस्वीकार कर दिया । मैं उस समय अभाव में था, मेरे सामने कोई आर्थिक अवलम्ब नहीं था । योगक्षेम एक प्रश्न चिह्न बन कर सम्मुख खड़ा था । मगर फिर भी मैंने उपरोक्त आर्थिक प्रबन्ध भी अस्वीकार किया, इस संकल्प के कारण कि लिखूंगा तो काव्य ही, उपन्यास नहीं । हृदय में एक दुर्द्धर्ष संकल्प - शक्ति और आत्मनिष्ठा जाग उठी थी ।'''''' लग रहा था कि, आकाश - पुरुष महावीर का लीला-गान करने के लिए मेरे कवि को आकाशवृत्ति स्वीकार लेनी चाहिये । इस युग के चरित्रनायक, महाविष्णु महावीर स्वयम् ही क्या कम समर्थ हैं ? उनके चरित्र-गान में कवि लीन हो गया, तो चरितार्थ आकाश में से उतरेगा । मुनिश्री विद्यानन्द - विशेषांक Jain Education International For Personal & Private Use Only १५७ www.jainelibrary.org

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