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इन दिनों आप नयी-नयी संस्थाओं को जन्म दे रहे हैं, किन्तु जो पुरानी संस्थाएं पहिले से कार्यरत हैं, उन्हें बदले हुए संदर्भो में क्या करना चाहिये ?
कोई भी संस्था ईंट-पत्थर, चूने-गारे से नहीं बनती। वह जड़ पदार्थों की सभा मात्र नहीं है अतः हमें चाहिये कि हम संस्था को साधन मानें और उत्तम कार्यकर्ता तैयार करने को साध्य । आज संस्थाएँ तो बनती हैं किन्तु कार्यकर्ता नहीं होते । मैं जिन संस्थाओं को प्रेरित करता हूँ, उनमें कार्यकर्ता पहले देखता हूँ । नयी-पुरानी सभी संस्थाओं को कार्यकर्ताओं पर ही अधिक ध्यान देना चाहिये । आज न तो विद्वान् पंडित ही हैं और न ही समाजसेवी व्यक्तित्व ; जो हैं, वे भी जाने लगे हैं । अतः हमें अपने संपूर्ण साधन-स्रोतों के साथ इस कमी को पूरा करने में जुट जाना चाहिये । प्रशिक्षित और निष्ठावान कार्यकर्ता जब तक आगे नहीं आयेगा, संस्थाएं निष्प्राण रहेंगी; कागज पर बनी हुई तस्वीर-मात्र।
आज हिंसा और परिग्रहमूलक व्यवस्था में जैन पत्र-पत्रिकाओं की क्या भूमिका होनी चाहिये?
पत्र-पत्रिका फिर वह चाहे जैन हो या जैनेतर, उसे मनुष्य को केन्द्र मानकर चलना चाहिये; और उखड़ते हुए नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के पुनःसंस्थापन में पूरे बल से सहायता करना चाहिये । उन्हें प्राचीन इतिहास की उज्ज्वलताओं को उजागर करना चाहिये और सत्प्रवृत्तियों को अनवरत प्रोत्साहित और पुरस्कृत । उनका सदाचार भ्रष्टाचार, हिसा और सामुदायिक जीवन को पतन के रास्ते जाने से रोक सकता है। 00
जैसा मेंने देखा-(पृष्ठ ११९ का शेष ) की एक जन-सभा में यह घोषणा की कि तीर्थंकर महावीर की निर्वाण-तिथि प्रबन्धक समिति में उसीको अध्यक्ष बनाया जाय जो धर्माचरण के अनुकूल हो और शराब न पीता हो, कुव्यसन-सेवी न हो । मैं नहीं जानता कि तब लोगों ने क्या अनुभव किया-कैसा अनुभव किया या तद्नुसार आचरण के लिए क्या प्रयत्न किया? और अब कैसा प्रोग्राम होना है ? यहां तो मेरा तात्पर्य केवल मुनिश्री की निर्भीक वक्तृता से है कि वे कितने स्पष्ट वक्ता हैं। 'कह दिया सौ बार उनसे, जो हमारे दिल में है।'
उक्त तथ्यों के आधार पर यदि हम निष्कर्ष निकालना चाहें, तो यों कह सकते हैं कि पूज्य मुनिवर हर क्षेत्र में अनमोल हैं । वे सर्वगुणसंपन्न हैं। उन्हें ज्ञान है, विशेष ज्ञानविज्ञान है और भेद-विज्ञान भी है । मेरा तो कभी-कभी ऐसा भी विश्वास हो जाता है कि आज २५०० वर्षों के बाद जो स्थिति (जनता की दृष्टि में) तीर्थंकर महावीर की है, वही स्थिति आज से २५०० वर्षों बाद मुनिश्री विद्यानन्द की भी हो सकती है । तीर्थंकर को ज्ञान-विज्ञान के साथ भेद-ज्ञान की चरमोपलब्धि प्राप्त थी और ये भी भेद-विज्ञान की आत्म-परक चरमोपलब्धि करते ही उस स्थिति को पाने में समर्थ हो सकते हैं-जन-जन से दूर, शान्त एकान्त में विराजते हैं, वैसी सामर्थ्य रखते हैं। मैंने मुनिश्री की हिमालय-उपलब्धि में ये ही भाव-एकान्तवास के उद्गार अनेक बार मुनिश्री के श्रीमुख से श्रवण किये।
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मनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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