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अपरिग्रह के प्रचेता भगवान महावीर
अन्तः मानस का परिवर्तन, साध्य साधन की एकरूपता एवं अहिंसा तथा प्रेम का मार्ग आज तक सामूहिक क्रान्ति के लिए अपनाया ही नहीं गया, अन्यथा इतिहास का एक नया अध्याय ही खुल जाता ।
मुनि रूपचन्द
अपरिग्रहके दो पक्ष हैं : आत्मगत और समाजगत | आत्मगत पक्ष का सम्बन्ध अध्यात्म की साधना से है । अध्यात्म-साधक का मन जितना बाध्य वस्तुओं के प्रति ममत्व से मुक्त होगा उतना ही अन्तर्मुख होकर साधना को शक्ति-संयुक्त करेगा । इस आधार - भूमि पर अपरिग्रह वस्तुओं का नहीं, उनके प्रति ममत्व का विसर्जन है । वस्तुओं का अभाव हो या अतिभाव, मन निर्लिप्त हो, यह अध्यात्मसाधक के लिए अनिवार्य शर्त है । इसी भूमिका पर महावीर अपरिग्रह को प्रतिपादित करते हैं ।
" लेकिन ममत्व का अभाव" अतिभाव और अभाव, वस्तु जगत् की दोनों स्थितियों का, जो समाज के लिए घातक हैं, निवारण करता है, स्वामित्व का सर्वथा लोप कर समत्व पर आधारित सामाजिक अर्थतन्त्र का पुनर्निर्माण करता है और अगर वह ऐसा नहीं करता तो यह मानना चाहिये कि मन के धरातल पर ममत्व शेष है -- आत्मगत भूमिका पर अपरिग्रह नहीं सधा है ।
व्यय,
महावीर का महाभिनिष्क्रमण महापरिग्रह - ग्रस्त सामंती मूल्यों में जीने वाली हिंसक व शोषक समाज व्यवस्था के ऊपर एक करारी चोट था; विलास और अपशोषण और उत्पीड़न, विषमता और अहंता, वर्गभेद और जातिभेद के जलावर्त में फँसे समग्र सामाजिक तंत्र को झकझोरने वाला एक कदम था। जिसकी जीवन्त प्रेरणा लेकर भारतीय समाज अगर अपने को अपरिग्रह और अहिंसा की पीठिका पर पुनर्गठित करता तो मानवता के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ अनायास ही लिखा जा चुकता; 'लेकिन', पता नहीं, इस 'लेकिन' का अन्त हम कभी कर पायेंगे या निकट भविष्य में यही हमारा अन्त कर डालेगा ।
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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