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धर्म-क्रान्ति पूरे राष्ट्र का कायापलट कर देती, लेकिन--इस 'लेकिन'के हजारों उत्तर हैं लेकिन उन सबको मिलाकर एक भी सही उत्तर बन नहीं पाता क्योंकि उसकी बुनियाद ही आत्म-प्रवंचना और लोक-प्रवंचना है।
सामाजिक स्तर पर समता की स्थापना तभी हो सकती है जब लोकमानस में उसका अवतरण हो और लोकमानस में यह तभी हो सकता है जबकि व्यक्तिचेतना उससे संपूर्णतः अनुप्राणित हो जाए। आज एक मानसिक क्रान्ति की अपेक्षा है, उसके अभाव हजारों में रक्त-क्रान्तियाँ होने पर भी शोषण तथा विषमता को समाप्त नहीं किया जा सकता। फ्रांस की राज्यक्रान्ति स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व के लक्ष्य को लेकर हुई थी लेकिन उसकी अन्तिम परिणति नेपोलियन के साम्राज्यवादी एकतन्त्र में हुई जिसे हटाकर राजसत्ता पुनः स्थापित हो गयी। इंग्लैंड की पत्रिका 'टाइम एण्ड टाइड' के अनुसार साम्यवादी देशों में अब तक दस करोड़ मानवों का रक्त बहाया जा चुका है, लेकिन समानता के नाम पर बुनियादी मानवीय स्वतन्त्रताओं का हनन भी हुआ, व्यक्ति के सारे अधिकार समाप्त कर दिये गये तथा एक नये वर्ग ने, जिसके हाथ में राजनीतिक और आर्थिक दोनों सत्ताएँ थीं, कोटि-कोटि जनों को दासता की जंजीरों में जकड़ कर पूंजीवादी व्यवस्था से भी अधिक भयानक शोषण और उत्पीड़न का शिकार बनाकर रख दिया। मार्क्स ने जिस साम्यमूलक समाज का आदर्श रखा था उसमें राज्य, सरकार, न्यायालय, कानून आदि की आवश्यकता ही नहीं हो सकती, व्यक्ति को अबाध स्वतन्त्रता तथा समाज को वर्गहीन साम्य मिलता; लेकिन आज जो व्यवस्था कायम है वह व्यक्ति को कायर, कमजोर, दास-वृत्ति का शिकार, शोषित , पीड़ित एवं प्रताड़ित बना रही है। बोरिस पास्तरनाक, अलेक्जेण्डर सोल्जिनित्सिन, मिलोवन जिलासू, कुजनेत्सोव के साथ जो हुआ इतिहास उसका साक्षी है।
कुछ साम्यवादी देशों को राष्ट्रीय स्तर पर जो यत्किंचित् सफलता मिली है उसका एक हेतु वहाँ जनसंख्या के दबाव का अभाव है । चीन जैसे देश में, जहाँ जनसंख्या का दबाव अत्यधिक है, साम्यवादी व्यवस्था दरिद्रता, अज्ञान एवं शोषण को मिटाने में कितनी सफल हो पायी है, इसे विश्व के इतिहासज्ञ, राजनीतिज्ञ तथा अर्थशास्त्री जानते हैं।
इसका मूल कारण यही था कि मार्क्स ने वैषम्य का आरोपण व्यवस्था पर किया जबकि उसका बीज व्यक्ति के अन्तःकरण में है, हिंसक साधनों को विहित माना जबकि हिंसा में शोषण अन्तनिहित है, वर्ग-घृणा व वर्ग-संघर्ष का रास्ता अपनाया जबकि विषमता का बीज इसी में छुपा है। महावीर और बुद्ध, क्राइस्ट तथा कनफ्यूसियस का मार्ग दूसरा है । अन्तःमानस का परिवर्तन, साध्य-साधन की एकरूपता एवं अहिंसा तथा प्रेम का मार्ग आज तक सामूहिक क्रान्ति के लिए अपनाया ही नहीं गया, अन्यथा इतिहास का एक नया ही अध्याय खुल जाता।
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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