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लेकिन जब वह समाज - जीवन में प्रवेश करता है - और उसका अधिकांश समय समाज - जीवन में ही व्यतीत होता है, तब वह व्यापारी है, राजनीतिक है, सत्ताधीश है, धनपति है, शोषक है, स्वार्थी है, अहंकारी है, उसकी सारी बुद्धि, सारी युक्ति अधिकाधिक पाने और स्वार्थ-साधना में लगती है । परिणाम यह है कि मनुष्यों में एक हायरआरकी--श्रेणिबद्धता खड़ी हो गयी है । आप बहुत मजे मजे में दीनहीन - कंगाल निर्वसन और निराहार मनुष्य को नीचे की सीढ़ी पर देख सकते हैंबिलकुल दिगम्बर-त्याग के कारण नहीं, लाचारी के कारण और उच्चतम सीढ़ी पर वैभव में लिपटे हुए समृद्ध मनुष्य को देख सकते हैं जो अपने ही ऐश्वर्य और मद में मदहोश है । मनुष्य की इस हायरआरकी ने मनुष्य को प्रायः समाप्त ही कर दिया है।
गांधी ने अच्छी तरह पहचाना कि मनुष्य की ये दो समानान्तर रेखाएँ इसे मनुष्य रहने ही नहीं देंगी। ऐसे में उसकी निजी नम्रता और भक्ति, त्याग और संयम भी उसे अहंकारी ही बनायेगा । इसलिए उसने मनुष्य को इस खंडित जीवन से बचाने की साधना की, मनुष्य को मनुष्य रहना है तो उसे साबित बनना होगा । जैन लोग तो खंडित प्रतिमा को नमस्कार भी नहीं करते । प्रतिमा खंडित नहीं चलेगी, तो मनुष्य कैसे खंडित चलेगा ? और मनुष्य साबित तभी बनेगा जब वह भीतर-बाहर का जीवन सहज बनाये । अहिंसा की साधना में यह एक धीर - गम्भीर, कठिन और लम्बा आरोहण है। उतना सरल नहीं, जितना व्यक्तिगत साधना का मार्ग है। 'एकला चलो रे !' की भावना गुरुदेव टेगोर को बल दे सकी, नोआखाली में गांधी अकेला ही शान्ति यात्रा पर चल पड़ा था, परन्तु समाज - जीवन यदि पशु-बल से घिरा हुआ है और उसी पर आधारित है तो मनुष्य कितना ही मंदिर - मसजिद की आराधना में लगा रहे और ध्यान-धारणा करता रहे अपने-आपको साबित नहीं रख सकेगा । रख पाया ही नहीं - - इसीलिए तो वह टूटकर दो समानान्तर रेखाओं पर दौड़ रहा है ।
गांधी का विस्फोट
इस दृष्टि से देखें तो महावीर के बाद लगभग ढाई हजार साल के अन्तर पर एक दूसरा विस्फोट गांधी ने अहिंसा के क्षेत्र में किया। उसने समाज - जीवन को बदलने का बीड़ा उठाया। गुलामी से मुक्ति, शोषण से मुक्ति, भय से मुक्ति । डरा हुआ मनुष्य कौन-सी धर्म-साधना कर सकता है ? कायर की अहिंसा 'अहिंसा' नहीं है । संसार गांधीजी की इस साधना का प्रत्यक्षदर्शी है । निहत्थे लोगों ने महज अपने आत्मबल से साम्राज्य का झंडा झुकाया है, उसकी तोपों के मुँह मोड़े हैं । बहके हुए इन्सानों के सामने वह महात्मा अपना सीना ताने अड़ा रहा। लोगों के मन बदले । उसने आग उगलती ज्वालामुखी धरती पर प्रेम के बीज बोये उगाये ।
मनुष्य को, सत्ताधीशों को और मनुष्य के समुदायों को जीतने में उसने शरीरबल का आधार लिया ही नहीं । मेरी कष्ट सहिष्णुता आपके दिल को पिघलायेगी, मेरा त्याग आपके लालच को रोकेगा, मेरा संयम आपकी अफलातूनी पर बंदिश लायेगा । आप बहक रहे हैं, मैं मर मिटूंगा। मैं आपकी हिंसा का रास्ता रोकूंगा और आपको अहिंसा की ओर मोडूंगा - बंदूक से नहीं, स्वयं मर-मिट कर । बात खुद अहिंसक होने या अहिंसा-धर्म पर चलने से नहीं बनेगी, वह तब बनेगी जबकि
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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