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मैं आपकी हिंसा को रोकने के लिए उत्सर्ग हो जाऊँ। महावीर ने तप सिखाया अपने आत्म धर्म के लिए, गांधी ने मरना सिखाया समाज को अहिंसक बनाने के लिए। दोनों कठिन मार्ग हैं--जी-तोड़ श्रम-साधना के मार्ग हैं। महावीर और गांधीदोनों यह कर गये। मनुष्य को सिखा गये। गांधी ने 'सत्याग्रह' का एक नया उपकरण मनुष्य के हाथ में थमाया। एटम बम जहाँ फेल होता है, वहाँ सत्याग्रह पर आधारित जीवन-बलिदान सफल होता है। मनुष्य की आस्था निजी जीवन में 'हिंसा' पर से डिग चुकी थी, गांधी के कारण समाज-जीवन की 'हिंसा' पर से भी डिग चुकी है। समाज-जीवन में प्रेम, सहयोग, समझाइश, मित्रता और सहिष्णुता का आधार मनुष्य ले रहा है। दिशा मुड़ गयी है। यों लगातार ढेर-के-ढेर शस्त्र बनरहे हैं, संहारक शस्त्र बन रहे हैं, फौजें बढ़ रही हैं, भय छा रहा है तथा दुनिया विनाश की कगार पर खड़ी है; पर भीतर से मनुष्य का दिल सहयोग और सहिष्णुता की बात कर रहा है। शस्त्र अब उसकी लाचारी है, आधार नहीं।
जैसे व्यक्तिगत जीवन में तृष्णा मनुष्य की लाचारी है आकांक्षा नहीं; क्रोधवैर बेकाबू हैं, पर चाहना नहीं। लोभ और स्वार्थ उसके क्षणिक साथी हैं, स्थायी मित्र नहीं। उसी तरह सामूहिक जीवन में हिंसक औजार, संहारक शस्त्र, बलप्रयोग, एकतंत्र राज्य-प्रणाली, फासिज्म, आतंकवाद मनुष्य की पद्धति नहीं हैं वह उस वहशीपन है। इस बुनियादी बात को गले उतारने में गांधी कामयाब रहा है।
महावीर ने मनुष्य के भीतर अहिंसा का बीज बोया तो गांधी ने उसकी शीतल छाया समाज-जीवन पर फैलायी। यह संभव ही नहीं है कि मनुष्य अहिंसा-धर्म की जय-जय बोले और रहन-सहन, खान-पान का शोधन करता रहे और समझता रहे कि वह अहिंसा-धर्मी हो गया। अपने भीतर की जीवन-तर्ज उसे समाज-जीवन में उतारनी होगी तभी अहिंसा की साधना में वह सफल हो सकेगा। यों हम देखें तो पायेंगे कि महावीर और गांधी एक ही सिक्के की दो बाजुएँ हैं। महावीर ने आत्मबोध दिया और गांधी ने समाज-बोध । बात बनेगी ही नहीं जब तक आत्म-बोध और समाज-बोध एक ही दिशा के राही नहीं होंगे। महावीर के अनुयायियों पर एक बड़ी जिम्मेवारी गांधी ने डाली है । महावीर के अनुयायी अच्छे मनुष्य हैं--जीव-दया पालते हैं, करुणा और प्रेम के उपासक हैं, संयमी हैं, व्रती हैं, त्याग की साधना करते हैं, धर्मालु हैं--इतना करते हुए भी खंडित मनुष्य हैं।
अपनी व्यक्तिगत परिधि से बाहर समाज-जीवन में आते ही वे टूट जाते हैं। वहाँ उनकी सारी जीव-दया समाप्त है, सारा संयम बह जाता है, त्याग का स्थान संग्रह ले लेता है, स्वार्थ-तृष्णा-सत्ता उन पर हावी हो जाती है और तब अहिंसा महज एक चिकत्ती'लेबल'-रह जाती है । अहिंसा तो एक साबित मनुष्य के जीवन की तर्ज है-उसके भीतर के, बाहर के जीवन की। महावीर और गांधी को जोड़ दें तो यह बाहर-भीतर की विरोधी तर्जे समाप्त होंगी और मनुष्य अहिंसा का सच्चा पथिक बन सकेगा। 00
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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