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वेयब्बा, ण परिचेतव्वा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए"-सारे प्राणी, सारे जीव, सारे स्वत्वों का शोषण, पीड़न, स्वत्वहरण, दासत्व तथा प्राणविमोचन न करना, यही शाश्वत, चिरन्तन और अटल धर्म है; क्योंकि 'सव्वेपाणा जोविउ कामा'-सब प्राणी जीना चाहते हैं, 'मरणभया' मरने से डरते हैं, 'सुहसाया'-सुख चाहते हैं, 'दुक्ख पडिकूला'-दुःख सबको प्रतिकूल लगता है।
महावीर की अहिंसा केवल व्यवहार या वाणी के स्तर पर ही नहीं, क्योंकि ये तो उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम मात्र हैं, वह मन के अतल गह्वरों में घूमने वाले सूक्ष्म चेतना-चक्र में समाहित होकर उसे रूपान्तरित कर देती है, इसी में उसकी सार्थकता है, अतः मन, वचन, कर्म तीनों योग तथा करना, कराना और अनुमोदित करना, तीनों करणों के समस्त स्तरों तक उसकी व्याप्ति है। आत्मसाधना के इस परम सत्य में ही सामाजिक क्रान्ति के बीज अन्तर्निहित हैं।
समाज की नींव व्यक्ति है । समाज का आधार सहयोग है। समाज व्यक्ति की सामूहिक इच्छा की अभिव्यक्ति है । समाज के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध कुछ करने, कुछ कराने और कुछ अनुमोदित करने में प्रकट होता है। यही महावीर के तीन करण हैं। यदि समाज में शोषण, विषमता और हिंसा हो तो यह स्पष्ट है कि वह व्यक्ति की इच्छा की अभिव्यक्ति है-समूह के स्तर पर। स्तर चाहे समूह का हो, लेकिन इच्छा व्यक्ति की है। लिप्सा व्यक्ति की है, उसका बीज व्यक्ति में है। व्यक्ति शोषण न करे, न कराये, न करने में सहयोगी बने, न उसका अनुमोदन करे, न शोषणशील व्यवस्था के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध कायम रखे तो समाज के सामने मिट जाने या बदल जाने के अलावा कोई विकल्प रहता ही नहीं। यह समाज-क्रान्ति का सबसे सशक्त सूत्र है जिसकी महत्ता गांधीजी समझ सके और उन्होंने असहयोग और अवज्ञा के रूप में इसका सफल प्रयोग किया।
महावीर का स्पष्ट मंतव्य है कि अहिंसा धर्म है, हिंसा अधर्म, कि विषमता हिंसा है, शोषण हिंसा है, किसी पर किसी भी प्रकार की बाध्यतामूलक सत्ता हिंसा है। इस हिंसा को स्वयं करना, किसी से कराना, करते हुए किसी के साथ किसी प्रकार का सहयोग रखना, उसको किसी भी प्रकार अनुमोदन देना, उसका अनुशासन, नियम, कानून और सत्ता को मानना-सब हिंसा है, एक जैसी ही, एक जितनी ही। अत: महावीर के वास्तविक अनुयायी का आत्मधर्म स्वयं अहिंसा की साधना करना तथा हिंसा के किसी भी प्रकार पर टिकी व्यवस्था के साथ पूर्ण असहमति ( टोटल डिस्सेण्ट) व्यक्त करना, पूर्णतः उसकी अवज्ञा करना, उससे पूर्णतः असहयोग करना है। पल-भर भी समाज इस स्थिति में अपने को एकदम बदले
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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