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के लिए बहुत दयावान हैं। खान-पान की भ्रष्टता से वे बहुत चिन्तित हैं। उनके लिए अहिंसा याने शुद्ध शाकाहार-खाद्य-अखाद्य का विवेक और जीवदया। मैं उन्हें समझाता रहता हूँ कि इतना तो आज के इस विज्ञान युग में परिस्थिति-विज्ञान (इकॉलॉजी) भी कर देगा। एक पूर्ण मांसाहारी के लिए पांच एकड़ जमीन चाहिये, जबकि एक पूर्ण शाकाहारी के लिए एक एकड़ जमीन ही पर्याप्त है। मनुष्य को अपनी जनसंख्या का संतुलन बैठाना हो तो अपने-आप उसे मांसाहार छोड़ना होगा। आबादी के मान से इतनी जमीन है नहीं कि मनुष्य मांसाहार पर टिका रहे। शायद बहुत ही निकट भविष्य में मनुष्य को अपनी सीमा पहचानकर मांसाहार छोड़ ही देना होगा--तब क्या हम सम्पूर्ण मानव-जाति को अहिंसा-धर्मी मानेंगे? लेकिन इतना सरल मार्ग अहिंसा का है नहीं।
मूल बात दृष्टि की ___ इसीलिए महावीर बाहर की आचार-संहिता में नहीं गया। भीतर से अहिंसा उगेगी तो बाहर का आचार-व्यवहार, रहन-सहन अहिंसा के अनुकूल बनने ही वाला है। उसकी चिन्ता करनी नहीं पड़ेगी। महावीर ने मनुष्य को भीतर से पकड़ा। उसने जान लिया कि मनुष्य हारता है तो अपनी ही तृष्णा से हारता है, भस्म होता है तो अपने ही क्रोध से भस्म होता है, उसे उसका ही द्वेष परास्त करता है, अपनी ही वैर-भावना में वह उलझता है । बाहर से तो कुछ है नहीं। वस्तुओं से घिरा मनुष्य भी अलिप्त रह सकता है, वस्तु को नहीं छूकर भी वह उसके मोहजाल में फंस सकता है। महावीर की यह अनुभूति बड़े मार्के की है। उन्होंने कहा है
"अनाचारी वृत्ति का मनुष्य भले ही मृगचर्म पहने, नग्न रहे, जटा बढ़ाये,
संघटिका ओढ़े, अथवा सिर मुड़ा ले--तो भी वह सदाचारी नहीं बन सकता।"
मूल बात वृत्ति की है, दृष्टि की है। हम भीतर से अपने को देखें और उसकी सापेक्षा में इस जगत् को समझें। महावीर हमें बाह्य जगत् से खींचकर एकदम भीतर ले गये--यह है तुम्हारा नियंत्रण-कक्ष। क्रोध को अक्रोध से जीतो, वैर से अवैर को पछाड़ो, घृणा को प्रम से पिघलाओ, वस्तुओं का मोह संयम के हवाले करो। तृष्णा का मुकाबिला समता करेगी, लोभ पर अंकुश साधना का रहेगा और इस तरह आत्मा अपने ही तेज-पुंज में अपने को परखेगी, जांचेगी, सम्यक् मार्ग अपनायेगी।
इसी पराक्रम ने महावीर को 'महावीर' की संज्ञा दी। अपने गले का मुक्ताहार किसी को देकर झंझट से मुक्त होना सरल है, लेकिन गले में पड़ी मोतियों की माला से अपना मन छुड़ाना सरल काम नहीं है। इस कठिन मार्ग की साधना महावीर ने की और कामयाबी पायी।
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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