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अहिंसा : महावीर और गांधी
यदि मनुष्य को मनुष्य रहना है तो उसे साबित बनना होगा। जैन लोग तो खण्डित प्रतिमा को नमस्कार भी नहीं करते । प्रतिमा खण्डित नहीं चलेगी, तो मनुष्य कैसे खण्डित चलेगा? और मनुष्य साबित तभी बनेगा जब वह भीतर-बाहर का जीवन सहज बनाये ।
-माणकचन्द कटारिया
अहिंसा कोई नारा नहीं है, न ही यह कोई धर्मान्धता (डॉग्मा) है। न अहिंसा 'परिभाषा की वस्तु है, न वह पंथ है। उसे न हम वाद कह सकते हैं, न हम उसे महज़ विचार मान सकते हैं। अहिंसा तो एक जीवन है, मनुष्य के जीवन की एक तर्ज, जो केवल जीकर पहचानी जा सकती है, समझी जा सकती है।
प्रकाश की आप क्या व्याख्या करेंगे? वर्णन से अधिक वह अनुभव की वस्तु है--उसी तरह अहिंसा मनुष्य के जीवन की एक विशेषता है। उसे जीता है तो वह मनुष्य रहता है, नहीं तो अहिंसा को खोकर समूची मानवता ही डूब सकती है।
अब क्या आप महज खाने-पीने की परिधि के साथ अहिंसा को जोड़ेंगे? क्या आप रहन-सहन के दायरे से इसे बांधेगे ? मैं मांस नहीं खाता तो क्या अहिंसक हो गया, या निरा शाकाहारी हूँ तो अहिंसक हो गया ? मैं किसी की हत्या नहीं करता, न शिकार खेलता हूँ, न कीट-पतंगों को मारता हूँ-मेरे लिए मांस-मछलीअंडा आदि अखाद्य हैं तो क्या मैंने अहिंसा को वर लिया ? --अब ये ऐसे प्रश्न हैं जिनकी तह में आप जाएँ तो महावीर के नजदीक पहुँचेंगे। महावीर पशु-बलि से घबड़ाकर, युद्ध में हो रहे विनाश को देखकर, राज्य-धन-यश की लोलुपता के कारण मनुष्य के द्वारा मनुष्य का हनन देखकर संसार से भागा और गहरा गोता लगा गया। अपने आप में डूब गया। अपने हृदय की अतल गहराई में उतर गया और जो रत्न वह खोजकर लाया वे अमूल्य हैं; अहिंसा को समझने में सहायक हैं; अहिंसा को जीने की कीमिया हैं।
____ मुझे एक धर्मालु मिले, जो जीवदया के हिमायती हैं--कबतर के लिए जुआर और चींटी के बांवियों में आटा डालने का उन्हें अभ्यास हो गया है। प्राणिमात्र
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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