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बिना कायम नहीं रह सकता । मार्क्स की रक्त क्रान्ति और वर्ग । संघर्ष की व्यूह - योजना जो सम्पूर्ण कायाकल्प नहीं कर सकती उसका सूत्र महावीर ने स्पष्ट बताया है । यद्यपि उसका मूल धरातल आत्मिक है, लेकिन निष्पत्तियाँ समाज परिवर्तनकारी हैं ।
मार्क्स इस शताब्दी के सबसे बड़े साम्य-प्रचेता हैं। उनका करुणाशील हृदय वर्ग-भेद, वैषम्य और शोषण पर आधारित समाज-व्यवस्था का बीभत्स रूप देखकर कराह उठा और उन्होंने वर्ग संघर्ष द्वारा साम्य- मूलक समाज-व्यवस्था की स्थापना का सूत्र दिया । आज आधा संसार उसे साकार करने में लगा है, लेकिन कर नहीं पा रहा है क्योंकि मूल में ही मार्क्स की कुछ भूल रही हैं । प्रथम, व्यवस्था पर सारा दोष आरोपित कर वह उसे बदलने का उपाय बताता है, लेकिन व्यवस्था का बीज व्यक्ति का अन्तर्मन है, इस बात को वह भूल गया है । दूसरे, हिंसा और वर्गघृणा स्वयं शोषण तथा विषमता के बीज हैं जिनसे साम्य - मूलक समाज - रचना संभव ही नहीं है । जिस द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर मार्क्स की क्रान्ति-व्यूह रचना टिकी है, वह अपने-आप में ही भूलों से भरा है ।
पच्चीस सौ वर्ष पूर्व महावीर ने अपरिग्रह तथा विसर्जन के सूत्र संसार को दिये थे । महावीर की भावना पर निर्मित समाज में स्वामित्व का सम्पूर्ण विसर्जन अनिवार्य है क्योंकि वे 'संविभाग' को जीवन का आधार मानते हैं और संविभाग का अर्थ ही है समान विभाजन या वितरण । 'दान' में देने वाले और लेने वाले के बीच वर्ग-भेद रहता है; लेकिन संविभाग वर्गहीनता अन्तर्निहित है । महावीर की स्पष्ट घोषणा है कि "असंविभागी नह तस्स मोक्खो " - असंविभागी के लिए धर्म या मोक्ष का अस्तित्व तक नहीं है । यह संविभाग करना, कराना, उसका अनुमोदन करना, असंविभागमयी व्यवस्था के साथ पूर्ण असहमति, असहकार और अवज्ञा करना, यह है साम्य-मूलक समाज-व्यवस्था की स्थापना के लिए महावीर का क्रान्ति-सूत्र ।
‘स्वाध्याय-रूपी चिन्तामणि जिसे मिल जाती है, वह कुबेर के रत्नकोषों को पराजित कर देता है । ज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेष और ज्ञान-विज्ञान की खोज में स्वाध्याय ही प्रबल कारण है ।
मुनि विद्यानन्द
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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