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विनाश हो गया और एक व्यक्ति का कल्याण हो गया तो समझ लो, सारी मानवता का कल्याण हो गया ।" व्यक्ति एक ही होता है, एक-एक व्यक्ति मिलकर समाज, देश और सारी मानवता बन जाती है ।
अतः महावीर का मार्ग समाज के संस्थागत रूप के लिए उद्दिष्ट नहीं है, लेकिन समाज पर उसका प्रभाव पड़े बिना रह नहीं सकता ।
अतः महावीर आत्म-साधना के प्रचेता हैं; लेकिन लोकजीवन में उससे क्रान्ति होती है, यह एक स्वयं प्रमाणित सत्य है ।
साधना की एक अनिवार्य शर्त है - जीवन-शुद्धि । “धन्य हैं वे जिनका अन्तःकरण निर्मल है" - ईसा मसीह ने जेतून के पर्वत से कहा -- “ क्योंकि वे प्रभु को देखेंगे ।" यह प्रभु क्या है ? महावीर का उत्तर स्पष्ट है - सच्च भवं " - सत्य ही प्रभु है, 'सच्च लोयम्मि सारभूयं - " - सत्य ही लोक में सारभूत है । सत्य क्या है ? जो है वह सत्य है — अस्तित्व, अपनी समग्र पूर्णता में । अस्तित्व एक ओर अखण्ड, अविभाज्य और अभेद सत्ता है जिसमें हम सब समाहित हैं और जो हम सबमें समाहित हैं । 'एगे आया' - एक आत्मा की मूलभूत सत्ता महावीर का सत्य है, सम्पूर्ण और अखण्ड । वह भगवान् है । इस सत्य की अराधना जीवन का लक्ष्य है । सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ एकात्मकता का बोध जिसमें हमारा व्यक्तिमूलक अहं समुद्र में बूँद की तरह विलीन हो जाता है और उस एकाकारता - एकात्मकता में अपने को खोना ही अपने को वास्तव में पाना है । क्राइस्ट के शब्दों में "जो अपने को खो देते हैं, वे अपने को पा लेते हैं और जो अपने को कायम रखना चाहते हैं, वे अपने को खो डालते हैं ।”
एकात्मकता के समग्रबोध में अहिंसा स्वतः समाहित है, उसकी व्यवहारिक फलश्रुति के रूप में। गांधीजी ने ठीक कहा था । " सत्य की खोज में निकलने पर मुझे अहिंसा मिली।” आन्तरिक मूलसत्ता में जो आत्मबोध है, व्यवहार के स्तर पर वह अहिंसा है । अल्बर्ट स्वाइत्जर के शब्दों में यह जीवन का सम्मान - 'रेवरेंस फॉर लाइफ' है । समाज, राष्ट्र और मानवता बहुत ही ऊपरी स्तर पर इस अहिंसा की ही अभिव्यक्ति हैं । इसके अभाव में उनका न सृजन संभव है, न संरक्षण, न अस्तित्व और न विकास । आत्मजीवन का परम सत्य ही, लोकजीवन का परम सत्य है, यह स्वयं प्रमाणित है और इसी में महावीर के मार्ग की सामाजिक महत्ता छिपी है ।
धर्म की परिभाषा महावीर ने आचार के स्तर पर अहिंसा पर ही आधारित की है। "सब्बे पाणा, सब्बे जीवा, सब्बे सत्ताण हंतव्वा ण अज्जावेयब्बा, ण परिता
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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