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महावीर : सामाजिक क्रान्ति के सूत्रधार
आत्मजीवन का परम सत्य ही लोकजीवन का परम सत्य है, यह स्वयंसिद्ध है और इसी में महावीर के मार्ग की सामाजिक महत्ता छिपी है।
0 भानीराम 'अग्निमुख'
महावीर एक आत्म साधक थे, समाज-सुधारक नहीं। आत्म-साधना वैयक्तिक होती है, समाज के लिए उद्दिष्ट नहीं; लेकिन जिसे हम समाज कहते हैं वह व्यक्ति की सामूहिक इच्छा की ही परिणति-मात्र है। अगर व्यक्ति नहीं चाहता तो समाज नहीं होता। यदि आज व्यक्ति न चाहे तो उसके लिए समाज का अस्तित्व रहता ही नहीं। व्यक्तियों से मिलकर समाज बना है, अतः उसकी रचयिता और नियामक व्यक्ति-व्यक्ति के अन्तःकरण में निहित भावना-मात्र है। समाज में यदि पाप है तो वह व्यक्ति का अपना है, पूण्य है तो वह भी व्यक्ति का अपना है। समाज की नींव सहकार है। इसके अभाव में एक पल भी समाज का अस्तित्व नहीं रह सकता।
। हम जब समाज की बात करते हैं तो अपने को उससे काटकर अलग कर लेते हैं। हर व्यक्ति यही करता है। अगर सारे ही व्यक्ति समाज से अलग हैं, उसके गुण-दोषों के लिए उत्तरदायी नहीं, तटस्थ आलोचक-मात्र हैं, तो फिर समाज किसका है ? किसने निर्मित किया है ? किसने कायम रखा है ? हम इन प्रश्नों से भाग नहीं सकते, इनका उत्तर हर व्यक्ति को अपने में ईमानदारी से खोजना है, उनके अनुसार उचित कदम उठाना है। यदि समाज में विषमता है, शोषण और हिंसा है तो इसका बीज हमें अपने अंतःकरण के शून्य विवर में कहीं मिलेगा और वहीं से उसका उन्मुलन भी संभव है। समाज और उसकी व्यवस्था तो छाया-मात्र है व्यक्ति की, और व्यक्ति प्रतिबिम्ब मात्र है, अपने अन्तःकरण के रंग-रूपों का।
महावीर आत्म-साधना का मार्ग बताते हैं और यह व्यक्ति के लिए है लेकिन व्यक्ति के अनेक बाहरी आयाम हैं जो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व में रचे-पचे हैं। व्यक्ति का रूपान्तरण हो गया तो सारी मानवता का हो गया, अन्तःव्यक्तिक्रान्ति हो गयी तो विश्व-क्रान्ति भी स्वतः हो गयी। वह नहीं हुई तो कुछ भी नहीं हुआ। पैगम्बर मुहम्मद के शब्द इस संदर्भ में एक जीवन्त सत्य का उद्घाटन करते हैं : “एक आदमी का विनाश हो गया तो समझ लो, सारी मानव-जाति का
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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