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मुनिश्री बोले : क्या केवल इसी कारण तुम वहाँ न जाओगे, कि जीप गाड़ी नहीं है ?' मैंने कहा : 'जी हाँ, महाराज ।'
पिताजी ने परम्परागत रीति से मुनिश्री का वन्दन किया। मैंने भी उनका अनुसरण किया
और चुपचाप एक ओर बैठ गया। मुनिश्री और मेरे पिता के बीच कोई घंटा भर अनेक तरह की चर्चा-वार्ता होती रही ।
__ मुनिश्री विद्यानन्द को देख कर भौंचक्का रह गया। यहाँ मैंने एक ऐसे दिगम्बर जैन मुनि को देखा, जो औरों से एकदम भिन्न दिखायी पड़ा, जिसका बात करने का ढंग निराला था, जो अपने विचार और अभिव्यक्ति में एकबारगी ही तेजस्वी, प्रतिभावन्त और मौलिक था । मुनिश्री विद्यानन्द के उस साक्षात्कार ने जैन मुनियों के प्रति मेरी सारी पूर्व धारणाओं को तोड़ दिया । प्रकृति से वे प्रसन्न और जीवन्त थे । ऐसा कतई न लगा कि वे अपने मुनित्व को भार की तरह अपने कंधे पर ढो रहे हैं, जैसा कि इससे पहले मुझे लगा करता था । और मुनियों की तुलना में मुझे लगा कि मुनिश्री विद्यानन्द अपने धर्म की अविचल प्रतीति पा गये हैं। उनके चेहरे पर, और उनके वर्तन में एक सूक्ष्म आनन्द का भाव था, संयम
और अनासक्ति की दृढ़ता थी। मेरे मन में अब तक सच्चे जैनत्व की ऐसी ही कोई धारणा रही थी । सो मुनिश्री विद्यानन्द स्वामी के व्यक्तित्व और वार्तालाप से मैं कुछ इस कदर प्रभावित हो गया, कि मेरे मन में ऐसी प्रतीति जागी कि मुनिश्री की भावमूर्ति को मन में संजोये रख कर और उनके सम्पर्क में रह कर, जैन कला-संस्कृति के अध्ययन की अपनी इस योजना को मैं बखूबी सम्पन्न कर सकूँगा।
अगली बार जब मुनिश्री अलवर में चातुर्मास कर रहे थे, तो मैंने तय किया कि मैं वहाँ जाकर कुछ दिन उनके सामीप्य में बिताऊँ। हिन्दुस्तान की फिजाओं में चारों ओर गर्म लू के झकोरे बह रहे थे, और उनके बीच गुजरते हुए मैंने अहमदाबाद से अलवर तक का लम्बा सफर किया। मेरे मन में मुनिश्री से मिलने की लौ-लगन लगी हुई थी, जो सदा आनन्दित मुद्रा में रहते हैं, फिर भी जो सहज ही आत्मस्थ और संयत हैं । अलवर में मुनिश्री के साथ बातों के कई लम्बे दौरों से मैं गजरा । जैन मुर्ति-विधान और मूर्ति-शिल्प-शास्त्र से लगा कर स्काई-स्क्रेपर और पाश्चात्य जगत् के यांत्रिक सुख-ऐश्वर्य तक, अनेक विषयों पर उनसे गहरी वार्ता होती थी। मैंने देखा कि मुनिश्री के भीतर, भौतिक जीवन और उसके विविधि लीला-विलास को जानने की एक विधायक जिज्ञासा थी। मेरे इस विषय में कुतूहल करने पर वे बोले : 'कौन कहता है कि प्रकृति को हमें नहीं जानना चाहिये, कि भौतिक जगत् के परिचय से हमें दूर रहना चाहिये ? जगत् और प्रकृति को जाने बिना उसका त्याग कोई कैसे कर सकता है ?'
मैंने प्रसंगात् मुनिश्री से कहा कि इस इलाके में, जंगलों के भीतर कोई साठ मील की दूरी पर पूर्व-मध्यकाल के जैन मंदिरों के खण्डहर मौजूद हैं । मैं उस स्थान पर जाना
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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