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अर्थात् 'जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरति देखी तिन तैसी' का वे पूर्ण-समन्वय हैं । वे 'वज्रादपि कठोराणि, मृदूनि कुसमादपि 'रूप हैं, द्वैत-अद्वैत की समष्टि हैं और प्रकृति-पुरुष के तीरथधाम हैं । मुनिश्री विद्यानन्दजी ज्ञान-स्व की साधना और सरस्वती जिनवाणी की आराधना में युगपत् तत्पर हैं-उन्होंने दोनों को एकाकार कर लिया है । वे वीर-वाणी को देश में उसी प्रकार बिखेर रहे हैं जिस प्रकार एक चतुर बागवान तैयार की हुई भूमि में बीज बिखेर देता है और अल्पकाल बाद संसार को लहलहाते पुष्पों वाले सुरभित पौधे तैयार मिलते हैं, वे उनकी सुरभि से मुदित होते हैं । स्मरण रहे, मुनिश्री के विहार से पूर्व ही अग्रिम नगर में अग्रिम भूमि तैयार हो जाती है और मुनिश्री धर्म-बीज-वपन का कार्य करते अविरल गति से चलते चले जाते हैं ।
यम से यम-विजय
सुना जाता है 'यम' जिसे पकड़ लेता है, छोड़ता नहीं । सब डरते हैं यम से । पर हिम्मत है मुनिश्री की जो यम को पकड़े हुए हैं। वे कहते हैं-तू औरों को नहीं छोड़ता तो हम तुझे नहीं छोड़ेंगे-'परित्राणाय जीवानाम्'। और यह सच है कि चाहे जो भी परिस्थिति क्यों न हो, मुनिराज यम (जीवन-पर्यन्त प्रतिज्ञा निभाने) को नहीं छोड़ते, छोड़ भी नहीं सकते । जैनाचार में जीवन-पर्यन्त के लिए धारण की हुई मर्यादा को 'यम' नाम दिया गया है । सच्चे मुनि यम पर सर्वथा विजय पाकर ही रहते हैं और आश्चर्य यह कि वे स्वयं कोई साधन नहीं बनते इस विजय में । यम को ही यम (राज) के अन्त का साधन बनाते हैं। मेरी दृष्टि में मुनिश्री ने हिमालय पर पदन्यास कर, यम-विजय के महान्यास का मार्ग खोल दिया।
न जाने लोगों को क्यों रुचि जागृत हुई है अब ? उप+न्यास करने की ! हमारे महापुरुषों ने तो जो किया सदा महत् ही किया। उनके कर्तव्य और पुराण सभी महान थे । लघु, उप, निकट आदि जैसे न्यासों की कल्पना भी न थी उन्हें । भला, वे उप-निकट जाते भी तो किसके ? जबकि उनके ध्यान, ध्याता, ध्येय सभी एक थे । महान् कार्य में लघु का तो प्रश्न ही न था उन्हें ।
हमें गौरव है कि हमारे मुनिश्री का उत्साह आत्मानुरूप रहा और उन्होंने हिमालय पर चरणों का 'उप' नहीं, अपितु 'महा' न्यास किया। मैं समझता हूँ-संभवतः मुनिश्री को अपने मूल-देशनाम से भी कुछ प्रेरणा मिली हो इस महान्यास में । वे कर्नाटक के रहे हैं। और कर्नाटक का सीधा, सरल, ग्रामीण अर्थ है- कर+न+ अटक अर्थात् कर, अटक मत-- अविरल गति से करते चल । फलतः मुनिश्री बढ़े और बढ़ते रहे द्वार से द्वार तक । ठीक ही है, प्राचीन युग के साधु-सन्त भी द्वार-द्वार अलख लगाते फिरे हैं। ११८
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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