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मुनि-दीक्षा से पूर्व कोण्णर (कर्नाटक) १९४६ हूमच (कर्नाटक) १९४७ कुम्भोज (महाराष्ट्र) १९४८ शेडवाल (मैसूर) १९४६ से १९५६ हूमच क्षेत्र (कर्नाटक) १९५७ सुजानगढ़ (राजस्थान) १९५८ सुजानगढ़ (राजस्थान) १९५६ बेलगांव (कर्नाटक) १९६० कुन्दकुन्दाद्रि (कर्नाटक) १९६१ शिमोगा (कर्नाटक) १९६२
वर्षायोग जयपुर, इन्दौर, मेरठ दिल्ली में आचार्य श्री देशभूषणजी के पास मुनि-दीक्षा लेने के पश्चात् मुनि श्री विद्यानन्दजी अपने गुरु के साथ सन् १९६४ में जयपुर में प्रथम वर्षायोग के लिए पधारे । उस समय जयपुर जैन समाज मुनिश्री की विद्वत्ता एवं वक्तृत्व शक्ति से बिल्कुल अनभिज्ञ था । मुनि संघों के प्रति वैसे भी जैन समाज का एक वर्ग उदासीन था। उस समय पंडित चैनसुखदासजी जीवित थे और उनका जयपुरवासियों पर पूर्ण वर्चस्व स्थापित था । मुनिश्री का वर्षायोग-स्थापना के पश्चात् कभी-कभी प्रवचन होता जो कभी आचार्यश्री के पहिले और कभी बाद में होता था । रत्न को कितना ही छिपाओ वह छिप नहीं सकता ; इसी कहावत के अनसार मुनिश्री की विद्वत्ता एवं प्रवचनशैली ने जयपुर के नवयुवक समाज पर प्रभाव जमाना प्रारम्भ किया और एक दूसरे के प्रचार के आधार पर काफी संख्या में लोग उनके प्रवचनों में जाने लगे ।
मुनि-दीक्षा के बाद दिल्ली १९६३ जयपुर (राजस्थान) १९६४ फीरोजाबाद (उत्तरप्रदेश) १९६५ दिल्ली १९६६ मेरठ (उत्तरप्रदेश) १९६७ बड़ौत (उत्तरप्रदेश) १९६८ सहारनपुर (उत्तरप्रदेश) १९६६ श्रीनगर-गढ़वाल (हिमालय) १९७० इन्दौर (मध्यप्रदेश) १९७१। श्रीमहावीरजी (राजस्थान) १९७२ मेरठ (उत्तरप्रदेश) १९७३
मुनिश्री की लोकप्रियता में वृद्धि के कारण गुरु-शिष्य में कुछ-कुछ मनमुटाव रहने लगा; लेकिन उन्होंने अपना प्रवचन बन्द नहीं किया और समाज को अपने जाग्रत विचारों से आकृष्ट करने लगे । पंडित चैनसुखदासजी को जब मुनिश्री के क्रान्तिकारी विचारों के सम्बन्ध में जानकारी मिली तो उन्हें अत्यधिक प्रसन्नता हुई और एक दिन
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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