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और भारत के कोने-कोने से सुदूर उत्तर-ठेठ दक्षिण पूर्व आसाम व पश्चिम तक हर भाषा-भाषी मुनिश्री के दर्शनों को इन्दौर आता रहा, आता रहा--कृतकृत्य होता रहा होता रहा और इन्दौर तीर्थ हो गया ।
और यही वह इन्दौर था जहाँ पहिले भी मुनि श्री आनन्दसागरजी, शान्तिसागर जी क्षाणी, वीरसागरजी आदि के चातुर्मास अत्यन्त शान्ति एवं धार्मिक वातावरण में सानन्द सम्पन्न हुए । और एक मर्तबा एक चातुर्मास में इन्दौर में वह विद्वेष की अग्नि समाज में प्रज्वलित हुई कि वर्षो इन्दौर में सामूहिक धार्मिक वातावरण का विलोप हो गया; समाज विभक्त हो गया । और इस विक्षुब्ध वातावरण में साधुओं का इस ओर रुख करना असुविधापूर्ण लगने लगा ।
समाज में अपने ही प्रति रोष था - युवावर्ग क्षुब्ध था और समाज के मन में अपनी पूर्व भूलों के प्रति ग्लानि । ऐसे वातावरण में महायोगी, संतप्रवर, विश्वधर्मप्रेरक साधु के इन्दौर-आगमन की स्वीकृति की मंगल ध्वनि गूंजने लगी -- सुदूर कैलाश की ओर से इन्दौर की ओर बढ़ते हुए मंगल चरणों की ध्वनि से समाज आहलादित हो गया और मुनिश्री की कीर्ति- गाथा से नगर का जन-जन चमत्कृत |
जुथ के जुथ स्त्री-पुरुष सैकड़ों सैकड़ों मीलों की दूरी पर ही स्वागतार्थ पहुँचने लगे--दर्शनार्थ पहुँचने लगे और सप्ताह - सप्ताह मंगल विहार में पगपग-साथसाथ मंगल वाणी गूंजती रही । जात-पाँत, ऊँच-नीच के भेद भूलकर मानव-मानव कृतकृत्य होते गये । पावन भागीरथी का यह प्रवाह इन्दौर की ओर बह चला ।
और तब ''जब इन्दौर में मुनिश्री पधारे; हर्ष-विभोर लाखों-लाख जन-जन ने वह स्वागत किया कि -- न भूतो न भविष्यति । वर्णनातीत मात्र देखने की बात थी; कल्पना
बात भी नहीं ।
इस ज्ञान गंगा के निर्मल तट पर इन्दौर का जन-जन, मालव का जन-जन और दूर-दूर के यात्री महीनों अवगाहन करते रहे और अनजाने में महीनों का समय आँख झपकते निकल गया । बिदा की बेला आयी, अश्रुधाराएँ बहती रहीं - बहती रहीं - -जन-जन अश्रुपूरित नेत्रों से मीलों-मील पीछे-पीछे भागते रहे और '''''
करजोर 'भूधर' बीनवै कब भिर्लाह वे मुनिराज !
यह आस मनकी कब फले, मम सरहि सगरे काज ! ! !
मुनिश्री के इन्दौर-चातुर्मास से युवावर्ग धन्य हुआ उसकी डगमग आस्था लौट आयी; प्रौढ़ वर्ग उदार अनुभूति से अभिभूत हो गया और वृद्ध कहते रहे यह प्रत्यक्ष समवशरण अब देखने को नहीं मिलेगा । साथ ही जन-जन की तब से अब तक भावना चातक वत - मुनिश्री की ओर लगी है कि अब कब ? कब ?
कब मिलहिं वे मुनिराज ! संसार विष विदेश में जे बिना कारण बीर !
साधु मेरे उर बसौ मेरी हरहु पातक पीर ! !
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-माणकचन्द पाण्ड्या
तीर्थंकर / अप्रैल १९७१
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