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'मैं तो चौराहे - चौराहे श्रमण संस्कृति का संदेश लोकहृदय तक पहुँचाने में संलग्न हूँ; क्या इन्दौर इसे बर्दाश्त कर सकेगा ? ”
- बाबूलाल पाटोदी
आज से पचास वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के शेडवाल ग्राम में माता सरस्वती उपाध्ये की भाग्यवान कोख से सुरेन्द्र का जन्म हुआ । भारत के नक्शे पर शेडवाल भले ही एक छोटा-सा देहात हो किन्तु इसने श्रमण संस्कृति के कई धुरंधरों को जन्म देने का सौभाग्य अर्जित किया है। शेडवाल की माटी जानती थी सुरेन्द्र आगे चलकर एक सार्वभौम विभूति बनेंगे और दिगदिगन्त तक उसकी सुवास फैलायेंगे । 'होनहार बिरवान के होत चीक पात " की कहावत चरितार्थ हुई और दृढ़ निश्चयी संकल्प - पुरुष सुरेन्द्र सांसारिक प्रपंचों को तिलांजलि देकर बचपन से ही इष्टदेव की आराधना में लग गये । जब आचार्यश्री महावीरकीर्तिजी आये तो युवा सुरेन्द्र ने उनसे क्षुल्लक की दीक्षा ग्रहण कर ली और आध्यात्मिक साधना की अगली सीढ़ी के लिए पूरे बल से तैयारी करने लगे । सारी माया-ममता को छोड़ वे क्षुल्लक- जीवन की कठोर साधना करते हुए बम्बई, कलकत्ता और जयपुर के प्रमुख ग्रन्थागारों की खोज-यात्रा पर निकल पड़े । क्षुल्लक और मुनित्व के मध्यवर्ती जीवन में उन्होंने लगभग आधा लाख ग्रन्थों का अध्ययनमनन किया और निर्ग्रन्थता की ओर बड़ी निष्ठा से आगे बढ़ आये । सन् १९६३ में वे दिल्ली आये और वहाँ आचार्य रत्न मुनिश्री देशभूषणजी से उन्होंने मुनि दीक्षा ग्रहण की।
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क्या इन्दौर इसे बर्दाश्त करेगा ?
मुनि दीक्षा के बाद उनकी ज्ञान-पिपासा और बढ़ गयी और वे राजस्थान की राजधानी जयपुर आ गये । यहाँ उन्होंने अपना पहली वर्षायोग संपन्न किया। पंडित
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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