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(संयुक्त पुरुष : श्रीगुरु विद्यानन्द, पृष्ठ ३४ का शेष) प्राज का 'वाहिमाम्' पुकारता विश्व लोकवल्लभ विद्यानन्द को अपने बीच धुरी के रूप में पाना चाहता है। का सेठाश्रयी पंडित होने को अपनी आत्मा का अपमान समझता है। जिनेश्वरों के धर्मशासन की व्याख्याता वह पंक्ति-परम्परा आज लुप्तप्रायः है, महाराज ! गोपालदास बरैया और गणेशप्रसाद वर्णी की जनेता धर्म-कोख आज बाँझ होने की हद पर खड़ी है। क्या समाज के सर्वेश्वरों को इसकी चिन्ता कभी व्यापी है ? कतई नहीं। कान पर जूं तक नहीं रेंगती; क्योंकि यह व्यवस्था गैरसामाजिक और गैरजिम्मेवाराना है। यह समाज है ही नहीं, केवल व्यक्त स्वार्थों के पारस्परिक गठबन्धन की दुरभिसन्धि है ।
___ 'जानता हूँ। जो तुम्हारा दर्द है, वही तो मेरा भी दर्द है ! सब कहो, सुनना चाहता हूँ ।'
__...धर्म-शास्त्र और जिनोपदिष्ट तत्त्वज्ञान का ककहरा तक भी न समझने वाले समाज के चोटीपतियों ने धर्ममूर्ति ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद, बैरिस्टर चम्पतराय, बैरिस्टर जुगमन्दरलाल जैनी, अर्जुनलाल सेठी और न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार जैन जैसे जाने कितने ही जिनेश्वरी सरस्वती के धुरन्धरों पर तरह-तरह के कलंक और लांछन लगाये। कइयों को प्रस्ताव पास करके जाति-बहिष्कृत भी किया गया। उन पर अत्याचार हुए।"और सुनाऊँ, महाराज ....?'
'कह दिया न, सब सुनाओ।'
'जैन पुरातत्त्व के विलक्षण खोजी और जिनवाणी के अनन्य उद्धारक पं. नाथूराम प्रेमी ने जब सर्वप्रथम जैन वाङमय को मद्रित कर प्रकाशित किया, तो शास्त्र की आसातना के इस पाप की खातिर, उनकी दूकान को बम्बई की गटरों में फिकवा दिया गया। उसके बाद नाथूराम प्रेमी ने जिन-मन्दिर का द्वार नहीं देखा। आज उन्हीं प्रेमीजी की कृपा के प्रसाद से छापे में मुद्रित जैन शास्त्र बम्बई के उसी मारवाड़ी मन्दिर' से लगाकर सारे भारत के जिन-मन्दिरों के भण्डारों में समादृत भाव से विराजमान हैं, और लाखों जैनियों के धर्म-लाभ का सुलभ साधन हो गये हैं ।'' ऐसी तो बेशुमार कहानियाँ हैं, महाराजश्री।'
'एक और तुम्हारे मन में आ रही है, वह भी सुना दो।'
'नवीन भारत के ऋषि-कल्प साहित्यकार और चिन्तक जैनेन्द्रकुमार की माँ की लाश उठाने के लिए आने को दिल्ली के हर जैन श्रावक ने इनकार कर दिया। और माँ के शव के पास एकाकी खड़े निरीह जैनेन्द्र की आँखों आगे,श्राविकाश्रम की अधिष्ठात्री रामदेवी की लाश पर, आश्रम के हिसाब-किताब की जाँच-कमेटी बैठी। उसके बाद जैनेन्द्र ने अपने को 'जैन' कहा जाना पसन्द नहीं किया। जैन तो मेरे नाम के साथ भी लगा है,
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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