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कलह एवं विद्वेष का बीज बो दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि युगपुरुषों और उनके उपदेशों के नाम पर भिन्न-भिन्न संप्रदाय (पंथ) बन गये और परस्पर आदर एवं सहिष्णुता के स्थान पर बौद्धिक और शारीरिक हिंसा होने लगी।
वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने मानवता के विकास का मार्ग अहिंसा की ज्योति से ही अलोकित किया था। अहिंसा ही व्यापक एवं मूल सत्य है; जिसका साक्षात्कार श्रमण-धारा के अनुयायियों ने किया । आचार्य समंतभद्र के शब्दों में 'अहिंसा भूतानां जाति विदितं ब्रह्म परमम्' अर्थात अहिंसा परम ब्रह्म रूप है, अहिंसा से ही परमात्मपद की उपलब्धि होती है और परमात्मपद ही अहिंसा का चरमोत्तम रूप है । आत्मा से परमात्मा बनने के लिए मन, वचन और काय रूप त्रिविध अहिंसा की परिपूर्ण साधना अपेक्षणीय है । जैनदर्शन केवल शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित नहीं है, वहाँ बौद्धिक अहिंसा भी अनिवार्य है। इस बौद्धिक अहिंसा को अनेकान्त, स्याद्वाद, समन्वय, सहअस्तित्व, सहिष्णुता, सर्वोदय, विश्वधर्म और जैनधर्म आदि नामों से संबोधित किया जाता है । मुनिश्री विद्यानन्दजी ने उक्त नामों में से 'अहिंसा धर्म की जय' और 'विश्वधर्म की जय' नामों को चुन लिया है और वे अपने प्रवचनों में जैनधर्म के सर्वोदयी भव्य प्रासाद के 'आचार में अहिंसा, विचार में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रह' इन चार महान् स्तंभों की महत्ता का विवेचन करते हैं । यह प्रासाद कोई नया नहीं है युगयग में तीर्थंकारों ने भी इसका जीर्णोद्धार किया है और इसे य गानुरूपता दी है। मनिश्री ने भी विश्व का हितकारी धर्म होने से इसके उक्त नामों में से विश्वधर्म नाम को पसन्द किया है जो मुग्ध पुरुषों को नया दीखता है । वास्तव में हम प्रथाओं , परम्पराओं और रीतिरिवाजों (रूढ़ियों) में इतने बंध गये हैं कि कोई भी नया शब्द, नयी भाषा जिसमें हमारे त्रिकालावाधित मूलधर्म का ही प्रतिपादन और समर्थन होता हो, युगानुरूपता को सहन नहीं कर सकते। हमारी मान्यता है कि जो हमारा है वही सत्य है, न कि जो सत्य है वह हमारा है। लोकरूढ़ियों में धर्म की कल्पना ने धर्म के यथार्थ रूप को परिवर्तित कर दिया है। साधु-जन परंपरा से प्राप्त संप्रदाय-रूपी शरीर को छोड़ नहीं सकते। उन्हें 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्' के रहस्य को उद्घाटित कर स्व-पर का कल्याण करना है, अपने कर्त्तव्य का परिपालन करते हुए जनता को भी धर्म की ओर प्रेरित करना है । जहाँ निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहणकर अपने शरीर, घर, समाज और उससे संबंध रखने वाले, माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि परिवार का मोह छोड़ा जाता है, उस कुटुम्ब की सीमित दीवार को तोड़कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के व्यापक दायरे में विवेकपूर्वक श्रमण-चर्या का निर्वाह करना पड़ता है; वहाँ भी 'स्व' की व्यापक अनुभूति के लिए पर-मात्र से बंधन-मुक्त होने का उद्देश्य टूट नहीं जाता है । परम्परानुसार आत्महित के साथ परहित (लोकसेवा) साधुजनों के लिए त्याज्य नहीं है।
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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