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आक्रमण करने, उसकी कल्याण मुनि से भेंट होने, फिर मुनिश्री का यूनान में विहार करने आदि की शोधपूर्ण सामग्री प्रस्तुत की है), आगरा, नवीन संस्करण १९७२ ।
९. गुरु-संस्था का महत्त्व (इस पुस्तिका में समझाया है कि किस प्रकार गुरु सम्यक्त्व की त्रिधारा के मूर्तरूप हैं, उनके सद्भाव से समाज पशुत्व से मनुष्यत्व और देवत्व की ओर अग्रसर होता है), जयपुर, १९६४ ।
१०. तीर्थंकर वर्द्धमान (मुनिश्री ने अपने मेरठ-वर्षायोग : १९७३ में जो अध्ययनअनुसंधान किया और जो अभीक्ष्ण स्वाध्याय-सिद्धि की, उसी की एक अपूर्व परिणति है उनकी आज से बीसेक वर्ष पूर्व प्रकाशित कृति 'वीर प्रभु' का यह आठवाँ उपस्कृत संस्करण इसमें भगवान महावीर के जीवन पर खोजपूर्ण सामग्री तो दी ही है, साथ ही उन तथ्यों का भी संतुलित समायोजन किया है जो अब तक हुई गंभीर खोजों के फलागम हैं । यही कारण है इसमें प्रागैतिहासिक, ऐतिहासिक, ज्योतिषिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से महत्वपूर्ण प्रमाणिक विवरण भी सम्मिलित है; यह ग्रन्थ अनेकान्त पर व्यापक जानकारी से युक्त है ), इन्दौर १९७३ ।
११. दैव और पुरुषार्थ (इस पुस्तिका में दैव की उपासना पुरुषार्थ-परायण होकर करने की प्रेरणा दी गयी है), आगरा, नवीन संस्करण १९७२ ।
१२. नारी का स्थान और कर्तव्य (इस पुस्तिका में नारी-जीवन को एक स्वस्थ और तेजस्वी मार्गदर्शन दिया गया है ), इन्दौर, १९७१ ।
१३. निर्मल आत्मा ही समयसार (यह कुन्दकुन्दाचार्य की बहुमूल्य कृति 'समयसार' पर मुनिश्री के स्वतन्त्र, सारपूर्ण, मौलिक प्रवचनों का अपूर्व ग्रन्थ है), इन्दौर, १९७२ ।।
१४. पावन पर्व रक्षाबन्धन (इस पुस्तिका में रक्षाबन्धन को मैत्री-पर्व, सौहार्द-महोत्सव के साथ 'वात्सल्प-पूर्णिमा' के रूप में प्रस्तुत किया है । कथा भी रोचक शैली में दी है), आगरा, नवीन संस्करण १९७२ ।
१५. पिच्छि-कमण्डलु (मुनिश्री-रचित कृतियों में इस ग्रन्थ को शीर्षस्थ स्थान प्राप्त है, यह एक ओर मौलिक एवं सारगभित है, तो दूसरी ओर मुनिश्री के प्रातिभ दर्शन एवं क्रान्तदृष्टित्व से ओतप्रोत है। इस ग्रन्थराज में जिनन्द्र भक्ति, गुरु-संस्था का महत्त्व, नरजन्म और उसकी सार्थकता, जैनधर्म-मीमांसा, चारित्र बिना मुक्ति नहीं, पिच्छि और कमण्डलु, शब्द और भाषा, वक्तृत्व-कला, मोह ओर मोक्ष, लेखन-कला; साहित्य, स्वाध्याय और जीवन, समाज, संस्कृति और सभ्यता, वर्षायोग, धर्म और पन्थ, दीक्षा-ग्रहण-विधि, सल्लेखना जैसे विविध एवं व्यापक विषयों का समावेश हुआ है । इनमें प्रतिपादित विषयों ने आगे चलकर स्वतन्त्र पुस्तिकाओं का स्वरूप ग्रहण कर लिया है), जयपुर, द्वितीय संस्करण (परिवद्धित-संशोधित) १९६७ ।
तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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