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गीता-मन्दिर में जब उन्होंने अपनी इस रामायण-कथा का प्रवचन किया, तो उसे सुनकर हज़ारों हिन्दू श्रोता भाव-विभोर हो गये। ऐसी निर्विरोधिनी और सर्वसमावेशी है मुनिश्री की वागीश्वरी । अनैकान्तिनी जिनवाणी का एकमात्र सच्चा स्वरूप यही तो हो सकता है। मुनिश्री की इस सर्वहृदयजयी मोहिनी से आकृष्ट होकर इन्दौर के मसलमानों ने भी उन्हें अपनी धर्मसभा में प्रवचन करने को आमन्त्रित किया था। रसूलिल्लाह हज़रत मोहम्मद के इस भारतीय संस्करण को सुनकर, इन्दौर की मुस्लिम प्रजा गद्गद् हो गयी। ... उन दो-तीन दिनों के सत्संग में, ये सारे विवरण जान-सुनकर मुझे प्रतीति हुई कि वर्तमान जैन संघ ने पहली बार मुनिश्री के रूप में, महावीर के सर्वोदयी और सर्वतोभद्र व्यक्तित्व का अनुमान प्राप्त किया है।
___ एकान्त अवकाश के समय ही मझे मुनिश्री से मिलने का सविशेष सौभाग्य तब मिलता रहा। बातों के दौरान उनकी विविध्रमुखी प्रवृत्तियों का परिचय भी मिला। उनमें एक मौलिक आविष्कारक और चयन-संचयनकारिणी प्रतिभा के दर्शन हुए। जैन वाङमय में उपलब्ध संगीत-विद्या को आकलित और एकत्रित करके उन्होंने जैन संगीत की एक युगानुरूप प्रांजल धारा प्रवाहित की है। इससे पूर्व जैन संस्कृत-स्तुतियों और भजनों को अत्याधुनिक 'ऑर्केस्ट्रा' (वृन्द-वाद्य) की संगत में संगीतमान करने का कार्य कभी हुआ हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। इतिहास, पुरातत्त्व, चित्रकला, शिल्पकला, स्थापत्य तथा ज्योतिष और अनेक प्रकार की योगविद्याओं में एवं मंत्र-तंत्र-शास्त्र में उनकी गहरी रुचि तथा व्यापक अनुसंधानपूर्ण अध्ययन देखकर मैं चकित रह गया।
काव्य और साहित्य के वे एक अत्यन्त तन्मय भावक और पारखी हैं। जैनाचार्यों के स्तुति-काव्यों के विशिष्ट चुने अंशों को जब वे उद्धत करते हैं या उनका सस्वर गान करते हैं, तो लगता है कि पहली बार जैन महाकवियों की महाभाव वाणी को हम सुन रहे हैं । ऐसा विलक्षण होता है उनका यह चुनाव, कि उन श्लोक-पंक्तियों में हम वेद-उपनिषद्, वेद व्यास, कालिदास की सरस्वती का समन्वित आस्वाद पा जाते हैं ।
हर बार मिलने पर अपने लिखे कई ग्रंथ भी एक-एक कर वे मुझे देते रहे । डेरे पर ले जाकर जब मैं उनमें से गुज़रा , तो उनका मौलिक भाषा-सौष्ठव देखकर आनन्द-विभोर हो गया। स्पष्ट ही लगा कि अपनी आत्माभिव्यक्ति की आन्तरिक आवश्यकता में से ही अपने लिए उन्होंने एक नयी भाषा का आविष्कार किया है, नया मुहाविरा रचा है । जैन वाङमय के रत्नाकर में से, अपनी सूक्ष्म, रस-भावग्राही अन्तर्दृष्टि द्वारा चुन-चुन कर, ऐसे भाव शबल और अर्थ-शबल शब्द-रत्न उन्होंने खनित किये हैं और अपनी भाषा में नियोजित किये हैं, कि उन्हें पढ़ते हुए चिरनव्य सारस्वत आनन्द की अनुभूति होती है।
उनके व्यक्तित्व, वर्तन, व्यवहार, चर्या और भंगिमा, सब में एक प्रकृष्ट सौन्दर्यबोध के दर्शन होते हैं । परम वीतरागी होकर भी वे सहज ही भाविक और अनुरागी हैं।
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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