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दक्षिण कर्नाटक के ब्राह्मण-कुलावतंस विद्यानन्द ने इस देश की प्रात्मा के मर्म को ठीक-ठीक पहचाना है ।"उन दो-तीन दिनों के सत्संग में मुझे प्रतीति हुई कि वर्तमान ने पहली बार मुनिश्री के रूप में महावीर के सर्वोदयी और सर्वतोभद्र व्यक्तित्व का अनुमान प्राप्त किया है।
नितान्त मोहमुक्त होकर भी वे परम सौन्दर्य-प्रेमी हैं। जैनों के धर्म-वाङमय में प्रेम, सौन्दर्य, अनुराग, भाव-सम्वेदन जैसे शब्द किसी अभीष्ट पारमार्थिक अर्थ में खोजे नहीं मिल सकते; पर मुनिश्री के व्यक्तित्व में सच्चिदानन्द भगवान् आत्मा की जीवोन्मुखी अभिव्यक्ति के व्यंजक ये सारे ही उदात्त गुण, एक अद्भुत आध्यात्मिक सुरावट के साथ प्रकाशमान दिखायी पड़ते हैं। वे एकबारगी ही आत्म-ध्यानी मौनी मनि हैं, मितवचनी हैं, प्रचण्ड वक्ता हैं, अध्यात्मदर्शी हैं, तत्त्वज्ञानी हैं, कवि-कलाकार हैं, सौन्दर्य के दृष्टा और स्रष्टा महातपस्वी हैं। संयम, तप, तेज, ज्ञान, भाव, रस और सौन्दर्य का ऐसा समन्वित स्वरूप किसी जैन मुनि में इससे पूर्व मेरे देखने में नहीं आया।
इसी बीच अपराह्न के मिलन में सौ. अनिलारानी और चि. डॉक्टर ज्योतीन्द्र जैन भी मेरे साथ रहते थे । अनिलारानी में मुनिश्री को कवि की सती गह-लक्ष्मी दिखायी पड़ी : स्नेहपूर्वक उन्होंने उनका सम्मान किया। ज्योतीन को पाकर तो वे मुग्ध और भाव-विभोर हो गये। वियेना विश्व-विद्यालय में नृतत्त्व-विद्या पर उसके पीएच. डी. के अध्ययन, यूरप में उसके तीन वर्षव्यापी प्रवास तथा उसके विविध खोज-अनसन्धानों की साहस-कथा को सुनकर वे वात्सल्य से गद्गद् हो आये । एक दिन प्रसंगात् अनिला को और मुझे लक्ष्य करके बोले :
'यह लड़का हमको बहुत पसंद आ गया। इसका उठना-बैठना, बात-व्यवहार सब बहुत विनीत और मधुर है। इसे हमको दे दो न... ?'
मेरी आँखें भर आयीं । मैंने कहा :
'आपका ही तो है। मैं उस दिन को अपने जीवन का परम मंगल-मुहर्त मानूंगा, जब ज्योतीन आपका कमंडल उठाकर, आपकी देशव्यापी लोक-यात्रा में आपका पदानसरण करता दिखायी पड़े ।...'
महाराजश्री एकटक ज्योतीन की ओर निहारते हुए हँसते रहे। उनकी वह हृदयहारिणी दृष्टि भूलती नहीं है ।
मुनिश्री की हिमालय-यात्रा का वृत्तान्त सुनकर सहस्राब्दियों पूर्व भगवान् ऋषभदेव के हिमवान-आरोहण की नारसिंही मुद्रा मेरी आँखों में झलक उटी। मैंने उसी प्रसंग में निवेदन किया :
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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