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लेखन चिन्तन की छाया है । मुनिश्री ने अपने तपःपूत चिन्तन से समुद्भुत विचारों को लिपिबद्ध किया है । पिच्छि-कमण्डलु, तीर्थंकर वर्द्धमान, विश्वधर्म की रूपरेखा, अनेकान्त-सप्तभंगी-स्याद्वाद, कल्याण मुनि और सिकन्दर आदि उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । मंत्र-मूर्ति और स्वाध्याय, गुरु संस्था का महत्व, अपरिग्रह से भ्रष्टाचार-उन्मूलन, दैव और पुरुषार्थ, सोने का पिंजरा, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, सुपुत्रः कुलदीपकः, श्रमण संस्कृति और दीपावली, ईश्वर क्या और कहाँ है, पावन पर्व रक्षाबन्धन, सप्त व्यसन आदि उनके अनेक सारगर्भित निबन्ध भी पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं । 'अमृत-वाणी' में उनके मंगल प्रवचन संगृहीत हैं । 'दिगम्बर जैन साहित्य में विकार' शीर्षक उनकी एक लघु पुस्तिका में समीक्षा की स्वस्थ विधा का निर्वाह हुआ है। परिष्कृत लेखनी से प्रसूत इन सभी कृतियों से मुनिश्री के गहन स्वाध्याय, अभिव्यक्ति-कौशल एवं बहुज्ञता का परिचय मिलता है। उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। उनका चिन्तन सम्यक् चारित्र से अनुप्राणित है । यही वजह है कि उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ते समय सामान्य पाठक एक मानसिक क्रान्ति के दौर से गुजरता है तथा पढ़ने के बाद स्वयं को पहले से अधिक शान्त और निराकुल अनुभव करने लगता है। मुनिश्री के तात्त्विक निष्कर्षों से भव-भ्रमजाल में फंसे हुए प्राणियों को समाधान मिलता है। उनकी साधना की कुंजी मुक्ति का द्वार खोलने में समर्थ है। ___ मुनिश्री ने जितना स्वयं लिखा है, उससे कई गुना दूसरों से लिखवाया है। वे एक व्यक्ति नहीं, संस्था हैं । साधकों के लिए वे प्रेरणा के पुंज हैं। उनका चिन्तन निष्पक्ष
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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