________________
कल्याण तो कर सकते हैं; किन्तु सामाजिक चेतना का प्रयत्न कितना सार्थक हो पायेगा? आज जब मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज के दर्शन करती हूँ और उनका प्रवचन सुनती हूँ तब अपनी प्रारम्भिक नादान धारणा पर स्वयं ही लज्जित हो जाती हूँ।
मुनि-दीक्षा धारण करने के बाद से श्री विद्यानन्दजी महाराज ने ज्ञानार्जन की यात्रा पर बहुत सधे पग बढ़ाये। जितना पढ़ा, उससे अधिक उस पर मनन किया । उस ज्ञान का भंडार जितना अधिक बढ़ता गया, उसे जनता तक ठीक-ठीक प्रभावकारी ढंग से पहुँचाने की साध भी उसी मात्रा में बढ़ती गयी। इसके लिए उन्होंने स्वयं को अपना ही शिष्य बनाया और एक छात्र की भाँति एक-एक कदम मंजिल तय की। भाषा, भाषण और शैली के कितने ही प्रयोग किये और एक दिन वह आ गया कि मुनिश्री की वाणी साकार सरस्वती बन गयी। आज वह जो बोलते हैं, सीधा हृदय में उतरता है, और उनकी शैली का निजी माधुर्य मोहित करता है। उनकी साधना और उनके ज्ञान की गहराई ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम पा लिया है-अर्थात् उन्हें जन-जन ने पा लिया है।
___ मुनिश्री अध्यात्म और साधना के ऊँचे शिखर पर रहते हैं, किन्तु दूसरों की मानवीय भावभूमि से वे सर्वथा कट नहीं गये हैं। वैष्णव कुल से जैन कुल में ब्याही आकर मुझे त्यागियों और मुनियों के जिस रूप के दर्शन हुए थे और जैसा मैं सुना करती थी, उसमें अनेक महत्त्वपूर्ण बातों के साथ-साथ प्रायः ऐसी बातों पर भी जोर दिया जाता था जो अन्तरंग शुद्धि की अपेक्षा, बाह्यशुद्धि और शूद्रजल त्याग जैसे संकल्पों को मुखरता से प्रतिपादित करते थे । यद्यपि श्रद्धेय श्री गणेशप्रसादजी वर्णी जैसे सन्त भी थे जो हृदय के सम्पूर्ण आशीर्वाद के साथ सही तत्त्व-दृष्टि देते थे और बाह्य कर्मकाण्ड की पद्धति को गौण मानते थे। मुनि श्री विद्यानन्दजी ने जब भी मुझसे बात की उसे सदा सहज बनाया--बाह्य कर्मकाण्ड के विषय में कभी चर्चा भी नहीं की। अधिकतर यह बताते की उन्होंने विभिन्न धर्मों के किन-किन ग्रन्थों से जैनधर्म-सम्बन्धी सिद्धान्तों का संकलन किया है। ज्ञानपीठ की नयी प्रवृत्तियों के विषय में पूछते, कुशल-क्षेम जानते। मुझे उनके दर्शन करने पर सदा ही लगा कि अत्यन्त ज्ञानी किन्तु मानवीय गुरुजन का आशीर्वाद मिला है; मेरी भावनाओं का उदात्तीकरण हुआ है।
मुनिश्री साधक तो हैं ही पर हृदय से कलाकार है, जिनकी परिष्कृत रुचि काव्य, संगीत, ललित कला और सौन्दर्य-बोध के तत्त्व रचे-पचे हैं। शुद्धता और स्वच्छता, समय की पाबन्दी, कार्यक्रमों की संयोजना और परिचालना में तत्पर शालीनता-अर्थात् एक उदार व्यक्तित्व, जो मन को बाँधता है, भावनाओं को उदात्त बनाता है, शान्ति समता और सौहार्द के सन्देश से जनमानस को प्रेरित करता है, आकुल जीवन को स्थिरता देता है।
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org