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धर्म की व्याख्या अनेक मत-मतान्तरों के देश भारत में मुनिश्री ने इस प्रकार से की है : 'जो मानव को मानव से जोड़े और उसे निकट लाये वह धर्म है और जो मानवों में फूट डाले, उनमें विभेद उत्पन्न करे, कटुता का सृजन करे, एक-दूसरे की निन्दा के लिए प्रेरित करे, वह चाहे कुछ भी हो, मैं उसे धर्म नहीं मान सकता।
सीधे और सरल उद्धरणों के माध्यम से वे कठिन-से-कठिन विषय और बात को अशिक्षित व्यक्ति तक पहुँचा देने की अनुपम क्षमता रखते हैं। यही कारण है कि मन्दिर, मस्जिद, जेल, बुद्धिजीवियों की विचार-सभाएँ, विद्यालय आदि सभी प्रकार के स्थान मुनिश्री विद्यानन्द के जादुई वक्तृत्व के स्पर्श से मंत्रवत् बँध से जाते हैं। हर सम्प्रदाय का व्यक्ति उन्हें सुनने के लिए भागा आता है, उनकी प्रवचनसभाओं में ठसाठस भीड़ होती है तथा सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वहाँ मौन और शान्ति का साम्राज्य होता है।
साम्प्रदायिक सद्भाव, राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक एकता, भाषायी सौहार्द पर मुनिश्री सदा बल देते रहे हैं। उन्होंने एक सभा में बहुत ही स्पष्ट रूप से अपने जीवन का ध्येय घोषित करते हुए कहा था कि मेरा संसार-त्याग का ध्येय और जीवन का एकमात्र उद्देश्य इस भारत भूमि को पुनः एकता के सूत्र में बाँधना है और मेरी इच्छा है कि यही कार्य करते हुए मेरा शरीर छूटे ।
पिछले दशकों में जैन मुनियों की श्रृंखला में मेरी स्मृति में इतना अध्ययनशील, प्रखर और ओजस्वी वक्ता उत्पन्न नहीं हुआ जिसने भारतीय संस्कृति और जैनधर्म की मूल शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार एवं पुनःस्थापना के लिए इतना महत्त्वपूर्ण कार्य कया हो।
पश्चिमे तुई ताकिये पश्चिमे तई ताकिये देखिस मेघे आकाश डोबा,
आनन्दे तुइ पूबेर दिके देख्-ना ताएर शोभा ॥ टकटकी लगाकार पश्चिम की ओर तू देखता है मेघो से आच्छादित आकाश । पूर्व की ओर आनन्द के साथ क्यों नहीं देखता तू उसकी शोभा ।।
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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