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द्रौपदी का जब कोई विदेशी आक्रमक - दुःशासन चीर हरण कर रहा हो उसकी शस्त्रबल से रक्षा करनी चाहिये, तभी हम ज्ञान - विज्ञान में प्रगति, उन्नति कर सकते हैं'शास्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते ।" वे देशोन्नति में प्रवृत्त होने को नैतिक कर्तव्य मानते हैं । वे चाहते हैं कि हम देश के प्रति इसी प्रकार विश्वसनीय बनें जिस प्रकार माता-पिता अपनी सन्तान के प्रति विश्वसनीय होते हैं । उनका संदेश है कि " गली मुहल्ले की सफाई करो, धर्म-चर्चा करो, देवमंदिरों में जाकर पवित्रता का पाठ पढ़ो, उदार बनो, संकीर्ण भावनाओं को छोड़ो। शीलवान, धैर्यवान, बलवान बनो । संयम, शिष्टाचार का पालन करो, अनाथों-दुखियों की सेवा करो ।” देशकी सर्वांग उन्नति के लिए एकत्व की परमावश्यकता है। पंजाबी, बंगाली, मद्रासी, गुजराती, कश्मीरी, बिहारी का प्रश्न सामने न रखकर 'भारतीय' होने की भावना को सामने रखें, यही चेतना देश की एकता को दृढ़ एवं पुष्ट करेगी ।
गांवों में मंगल विहार :
उन्होंने अनेक गाँवों का पैदल भ्रमण किया । उत्तर प्रदेश के चार सौ से अधिक गाँवों में उन्होंने मंगल विहार किया। खेतों में हल चलाते, कार्यप्रवण किसानों को देखकर प्रसन्न हो उठते, और जब कोई कृषक हाथ पर रखे रोटी खाता दिखायी देता तो प्रेमस्निग्ध वाणी में पुकार उठते- "यही तो हमारी श्रम व संस्कृति का दिग्दर्शन करा रहे हैं । ये ही इस देश के सच्चे मालिक हैं जो करोड़ों व्यक्तियों को भोजन देते हैं। अपने मंगल विहार में उन्होंने अनेक कृषकों और मजदूरों से बातें कीं, उनके प्रति सहानुभूति प्रकट की और उन्हें आशीर्वाद दिया । कृषक मुनिश्री के इस प्रेमपगे व्यवहार से अत्यधिक प्रभावित हुए । कृषक हो या श्रमिक, हरिजन हो या ब्राह्मण, निर्धन हो या पूंजीपति उनकी दृष्टि समान रूप से सभी पर पड़ती है-वे मानवतावादी रसदृष्टि से सभी को अनुषिक्त करते हैं । एक बार मेरठ (उ. प्र. ) में एक हरिजन महिला ने उन्हें सिर झुकाकर नमस्कार किया । तत्क्षण महाराज के मुखारविंद से रसस्निग्ध वाणी फूट पड़ी-इन हरिजनों की सेवा उसी प्रकार करो जिस प्रकार गांधीजी करते थे । इनको समाज में वही स्थान दो जो तुम को प्राप्त है। इन शब्दों में पैगम्बर हजरत मुहम्मद की वाणी की अनुहार प्रस्फुटित है; उन्होंने कहा था कि अपने नौकर या सेवक को वही खिलाओ जो तुम खाते हो, वही पहनाओ जो तुम पहनते हो। इससे अच्छा समाजवाद और क्या हो सकता है : "समाजवाद जम्बो जैट से नहीं आयेगा, बड़ी-बड़ी कारों से भी नहीं आयेगा । जब आयेगा तब जनसाधारण के प्रयत्न से आयेगा । हर पशु-पक्षी और मनुष्य को उसकी आवश्यकता के अनुसार भोजन जुटाना, हमारा कर्तव्य है और उस कर्तव्य at पूरा करना होगा । हमें सब बातों को सोचकर, मिल-बाँट कर पदार्थों का उपयोग करना चाहिये। सबको अपना-अपना भाग मिलते रहना ही समाजवाद है ।" उपर्युक्त शब्दों में मुनिश्री ने समाजवाद पर व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया है । समाज -
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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