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और 'साम्बरत्व' उसके जीवन-ग्रन्थ के पर्यायवाची शब्द हैं। वस्त्र-राहित्य उसके लिए बहुत सहज और स्वाभाविक बन चुका है। मेरी आँखों की पुतलियों में समाये हुए उस शरीरी का शरीर बता रहा है कि साम्बरत्व में 'नरत्व' और दिगम्बरत्व में 'मुनित्व' निवास करता है। प्रवचन के क्षणों में उस दिगम्बर मुनित्व को ऋषित्व का अपूर्व आलोक भी प्राप्त हो जाता है। ऋषित्व की सारस्वत महिमा से मंडित उस दिव्य मुनि की मुख-श्री एक प्रकार की गम्भीर समुज्ज्वल स्मिति से आलोकित होकर मुझे अपना बना रही है। उनकी मधुर ज्ञानालोक-विकीर्ण स्मिति मध्यमा और तर्जनी अँगुलियों के संकेतों के सहारे जो परिभाषाएँ और व्याख्याएँ प्रस्तुत करती है, वे उदात्त जीवनसूत्रों की कारिकाएँ तथा वृत्तियाँ बन जाती हैं । उस समय उस शरीरी के शरीर के दर्शन करके ऐसा प्रतीत होता है, मानो भगवान् महावीर की देह को गीता के श्रीकृष्ण की आत्मा प्राप्त हो गयी हो।
२१ जून १६७३
मैं सन्ध्या समय, दिल्ली के आकाशवाणी-केन्द्र से अलीगढ़ वापस आया हूँ। प्रिय भाई प्रचंडिया और दामोदर जैन ने बताया है कि आज प्रातः मुनिश्री का बड़ा उत्तम भाषण हुआ था, जैन मंदिर में; आप क्यों नहीं आये ? निमंत्रण तो मिला होगा। अपनी अनुपस्थिति के कारण मैं बहुत दुःखी-सा हूँ और पूछता हूँ कि भाषण किस विषय पर था ? भाई दमोदर बताते हैं-"हम दुःखी क्यों" विषय पर । ज्ञान की एक विशिष्ट किरण से मैं वंचित रहा हूँ । दूसरे दिन के लिए जागरूक और सन्नद्ध हो गया हूँ । इस दिन जिससे मिलता हूँ, वही मुझसे कहता है कि, "सुमनजी, आप आज प्रातः मुनिश्री के भाषण में दृष्टिगत नहीं हुए। किसी कारण यदि आप नहीं आ सके, तो निश्चय ही अपूर्व ज्ञान-रत्न राशि से वंचित रहे।"
२२ जून १९७३ ___ मैं प्रातः छह बजे खिरनीगेट (अलीगढ़) के जैन मन्दिर में पहुँच गया हूँ। मुनिश्री महाराज के भाषण-मंच के पार्श्व में ही मैंने अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। श्री पद्मचन्द जैन ने श्रोताओं को सूचना दी है कि "श्री महाराज पाँच मिनिट में पधारने को हैं। आज 'षट्लेश्या' विषय पर उनका भाषण होगा।" ठीक पाँच मिनिट बाद मुनिश्री दिगम्बर वेश में पधारे और गम्भीर एवं शान्त मुद्रा में व्याख्यान-मंच पर विराजमान हो गये। मंच के पृष्ठ भाग में दीवार पर कर्पट-पट्टिका के ऊपर दो सिद्धान्त-वाक्य दृष्टिगोचर हो रहे हैं-'अहिंसा परमोधर्मः; विश्वधर्म की जय'।
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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