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कितने ग्रन्थों के उल्लेख महाराज-श्री कर चुके हैं। मुनिश्री की मेधा और धारणाशक्ति को देखकर सभी श्रोता आश्चर्यान्वित हैं। ऐसी ही मेधा के लिए देवगण और पितर उपासना करते होंगे तभी तो यजुर्वेद का ऋषि उल्लेख करता है :
“यां मेधां देवगणा पितरश्पचोपासते"- -यजु. ३२/१४
भाषण समाप्त हो गया है। महाराजजी के अपने आवास-कक्ष में पहुँचने के लगभग २०-२५ मिनट के उपरान्त ही मैं, डॉ. रामसुरेश त्रिपाठी, डॉ. गिरिधारीलाल शास्त्री, डॉ. प्रचण्डिया, प्रो. ब्रजकिशोर जैन आदि भी वहाँ पहुँच गये हैं। २६ जून, १९७३ को महाराजश्री का यात्रा-प्रस्थान है, अतः हमने प्रार्थना की है कि महाराजजी के चरण-सान्निध्य में हमारा एक छायाचित्र खिंच जाए। प्रार्थना स्वीकार हुई और चित्र खिंच गया। उस चित्र की एक प्रति मेरे पास है। मैं उस तपोमति के छायाचित्र के दर्शनों से ही अपूर्व प्रेरणा प्राप्त करता रहता हूँ। दर्शनों के क्षणों में मैं विचारता हूँ और कल्पना करता हूँ कि यदि मुनिश्री विद्यानन्दजी महाराज जैसे आठ मुनि और हमारे भारतवर्ष की आठों दिशाओं में होते, तो भारत का स्वरूप कितना समुज्ज्वल होता! हम क्या होते और हमारा यह वर्तमान देश क्या होता !
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अपना अपने में बो, अन्तः जग बाहर सो।
-क. ला. सेठिया
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तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
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