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जैन साहित्य एवं संस्कृति अपने पूर्वगौरव को पुनः कैसे प्राप्त हो, बस यही एक चिन्ता उन्हें चौबीसों घण्टे अति व्यस्त रखती है। वे एकान्तप्रिय आत्म-साधक हैं । ज्ञान की भूख उनमें बहुत है । ज्ञान-चर्चा में उन्हें आनन्द आता है 'अज्झयणमेव झाणं'-पूज्य कुन्दकुन्दस्वामी की इस उक्ति को उन्होंने अपने जीवन में उतार लिया है। तीर्थंकरों की वीतराग वाणी के प्रचार-प्रसार की जैसी धन उन्हें है, वैसी इस सदी के किसी भी दिगम्बर जैन सन्त में शायद ही रही हो । बहुमूल्य दस्तावेजों (दुर्लभ हस्तलिपियों, रेखाचित्रों, पुस्तकों, गवेषणात्मक टिप्पणियों आदि) के ढेर में बैठे हुए वे साक्षात् सरस्वती-पुत्र ही लगते हैं । कुछ क्षणों के उनके साहचर्य से ही ज्ञानीजनों का ज्ञान अधिक समृद्ध हो जाता है। उनके चरणों में पहुँचकर तत्त्वज्ञान-शून्य किन्तु श्रद्धालु लोगों को भी लगने लगता है कि उनके भीतर से कोई प्रकाश-किरण मानो बाहर आने के लिए मचल रही है। 'दीप से दीप जले' की क्रिया घटित हुई सबको अनायास ही अनुभूत होती है । यही इस सन्त के दिव्य व्यक्तित्व का कमाल है।
सन्त वह व्यक्ति कहलाता है, जिसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर शेष नहीं रह जाता । मुनिश्री जो कहते हैं, वही करते हैं । करते पहले हैं, कहते बाद में हैं । वे शान्त स्वभावी हैं। उन्होंने क्रोध को जीत लिया है । माया-मोह से वे कोसों दूर हैं । मान उन्हें छू भी नहीं गया है । चोटी से एड़ी तक वे सदाचरण के रस में डूबे हुए हैं इसीलिए उनमें माधुर्य है । वे 'मनस्येकं, वचस्येकं, वपुस्येकं महात्मनाम्' की कोटि में आते हैं । मराठी में एक कहावत है-"जैसा बोले तैसा चाले त्यांची वंदावी पाउले'-जैसा बोले वैसा यदि चले भी तो उसके चरणों की वन्दना करना चाहिये । इस दृष्टि से पूज्य मुनिश्री निःसन्देह एक वन्दनीय सन्त हैं। एक साहित्यकार ___ मुनि वह है, जो मनन करता है। पूज्य विद्यानन्दजी महाराज का पूरा समय तत्त्वज्ञान के मनन-मंथन में ही बीतता है । इस मंथन से जो मोती निकलते हैं, उन्हें वे अपने पास न रखकर सारी दुनिया को बाँट देते हैं, यह ठीक भी है, क्योंकि वे उन थोड़े-से लोगों में से हैं, जिनका जीवन अपने लिए नहीं, सर्वहिताय संकल्पित है।
चिन्तन-मनन के हितकारी परिणाम को शब्द-बद्ध करने वाला व्यक्ति साहित्यकार कहलाता है। पूज्य मुनिश्री भी अपने विचारों को समय-समय पर शब्द-बद्ध करते रहते हैं। वे वाणी और लेखनी दोनों के धनी हैं । एक ओर जहाँ उनकी वक्तृता में सरलता, एवं प्रवाह पाया जाता है, वहीं दूसरी ओर उनकी रचनाओं में ओज एवं प्रसाद गुण के दर्शन होते हैं । उनकी भाषा प्राञ्जल तथा शैली मधुर है। उन्होंने बहुत-कुछ लिखा है और जो भी लिखा है वह स्थायी महत्त्व का है। उनकी कलम युग की निर्णायक रेखा है । भावी जैन इतिहासकार वर्तमान काल को 'विद्यानन्द-युग' के नाम से अंकित करेंगे, यह बात सन्देहातीत है ।
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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