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इस गुणग्राहिता को उन्होंने क्रियात्मक रूप देना आरम्भ भी कर दिया है। इन्दौर, मेरठ और कोटा में विद्वानों को सम्मानित कर पुरस्कृत किया जाना उनको इसी गुणग्राहिता का प्रतिफल है। समाज में विद्वत्सम्मान का जो भाव जागृत हुआ उसका एकमात्र श्रेय मुनिजी को है। मथुरा में विद्वत्परिषद् के तत्त्वावधान में महावीर-विद्यानिधि का जन्म उन्हीं की हार्दिक प्रेरणा से हुआ है।
श्री बाबूलाल पाटोदी इन्दौर के शब्दों में 'मनिश्री अविराम दौड़ती सदासद्यः उस नदी की भाँति हैं जो हर धाट-वाट पर निर्मल है और जो किंचित् भी कृपण नहीं है....वे अनेकान्त की मंगलमूर्ति हैं और इसीलिए प्रत्येक दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं और उसमें से प्रयोजनोपयोगी निर्दोष तथ्यों को अंगीकार कर लेते हैं।' और 'तीर्थकर' के यशस्वी सम्पादक डा. नेमीचन्द जैन की दृष्टि में 'दर्शनार्थी जिनके दर्शन के साथ एक हिमालय अपने भीतर पिघलते देखता है, जो उसके जनम-जनम के सौ-सौ निदाघ शान्त कर देता है। वन्दना से उसके मन में कई पावन गंगोत्रियाँ खुल जाती हैं। इस तरह मुनिश्री के दर्शन जीवन के सर्वोच्च शिखर के दर्शन हैं, परमानन्द के द्वार पर 'चत्तारि मंगलं' की बन्दनवार है।'
__ आज हम मुनिजी के ५१ वें जन्म-दिन पर अपने श्रद्धा सुमन उनके पद-पंकजों में इस मंगल कामना से अर्पित करते हैं कि व्यक्ति-व्यक्ति, समाज-समाज और राष्ट्रराष्ट्र में घन की तरह व्याप्त हिंसा, अशान्ति, असदाचार, भ्रष्टाचार, छल, अ-विश्वास आदि मानवीय कमजोरियाँ दूर होकर अहिंसा, शान्ति, सदाचार, पवित्रता और विश्वास जैसी मनुष्य की उच्च सदवृत्तियों का सर्वत्र मंगलमय सुप्रभात हो। मुनिश्री दीर्घकाल तक हमें मंगल पथ का प्रदर्शन करते रहें।
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भीड़ में अकेले
निर्विकारी मन, दिगम्बर तन भीड़ में तुम हो अकेले । संस्कृति का शोर, कोलाहल, तुम्हीं से आज मेले । ऋषभ से महावीर तक की संस्कृति के सूत्र जोड़े ।
जिस दिशा में मिले तीर्थकर चरण के चिह्न, तुमने पंथ मोड़े ।। देह नश्वर, तुम न नश्वर, संग नश्वर खेल खेले । निर्विकारी मन, दिगम्बर तन भीड़ में तुम हो अकेले ॥
-मिश्रीलाल जैन
५०
तीर्थकर | अप्रैल १९७४
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