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कारण और भी था । मैं भारतीय दिगम्बर जैन परिषद् के एक अधिवेशन में हरिजनों के मंदिर-प्रवेश पर एक जैन मुनि की प्रेरणा से आयोजित आक्रोशपूर्ण उपद्रव देख चुका था और प्रधानमंत्री के कन्धे पर हाथ रख कर एक दूसरे जैन मुनि के फोटो खिचाने के शौक की चर्चा भी सुन चुका था। इसलिए भी जाने की प्रेरणा नहीं हुई, पर एक संयोग ने एक दिन अचानक मुझे उनके निकट पहुँचा दिया ।
मेरे परम बन्धु श्री साहू शांतिप्रसादजी जैन और श्रीमती रमा जैन अचानक मेरे घर पधारे। वे दिल्ली से मनिजी के दर्शन करने आये थे और जैन बाग जा रहे थे। मुझे उनका साथ सदा सुख देता है, इसलिए उनके कहते ही मैं भी साथ हो लिया । ढलते पहर का समय था, तब भी वहाँ नगर के काफी जैन बन्धु थे। मैं उनसे बातें करने लगा और साहु-दम्पत्ति मुनिजी के पास कमरे में चले गये । थोड़ी देर में मुझे भी बुलावा आया, तो मैं भीतर गया। मुनिजी लकड़ी के लम्बे पटरे पर बैठे थे । कानों ने सुना-“आइये प्रभाकरजी !"
मैं गंभीरता के अभेद्य शिखर की भावना से कमरे में घुसा था, पर यहाँ तरल-तरंगित गंगा थी; भावना ही बंजर नहीं, महकता उपवन था । वाणी संयत, पर बेहद मधुर ; वातावरण एकदम सौम्य । मैंने मुनिजी की तरफ देखा, उनकी मुस्कान बिखरी कि मैं श्रद्धा के बोझ से दबते-दबते बचा-परम आत्मीय, परम स्नेहिल, परम पारदर्शी, एक परम मानवात्मा आत्मसाधक मेरे सामने थे । उनकी नग्नता की नहीं, मुझे समग्रता की ही अनुभूति हुई। साहूजी और रमाजी उनसे बातें करते रहे, पर मेरा ध्यान उनमें नहीं था । मैं जीवन भर अकिंचनों की सेवा का यज्ञ करता रहा हूँ, अकिंचनता की दीनता मैंने देखी है, भोगी है, पर मेरे सामने एक ऐसी अकिंचनता इस समय थी, जिसके चरणों में प्रणत हो कुबेर का कंचन अपने जीवन की कृतार्थता अनुभव करता है ।
चलते समय उन्होंने आप ही कहा-“और किसी दिन आपसे बातें होंगी।"और फिर वही मुस्कान । देश के अधिकांश संत और नेता, दोनों ही पृथक्ता-बोध को, दूसरों से अपनी श्रेष्ठता के दम्भ को अपनी शक्ति मान कर अपने जीवन-व्यवहार में उसका प्रदर्शन करते रहे हैं, पर मुनि विद्यानन्दजी की सन्निधि में तो मुझे भेदभाव की भनक भी नहीं मिली। मुझे लगा ही नहीं कि मैं उनसे आज पहली बार मिला हूँ। मुझे लगा कि मैं उनके साथ जाने कब से मिलता और तन-मन की बातें करता रहा हूँ, जबकि अभी तक उनसे मेरी कोई बात ही नहीं हुई थी; मैंने अपने से कहा-“विद्यानन्दजी को धर्म के गढ़ सिद्धान्तों में लाख दिलचस्पी हो, उनके लिए मनुष्य का महत्व कम नहीं है, वह उनकी दृष्टि में पूर्णतया महत्वपूर्ण है और वहीं वे दूसरे मुनियों से भिन्न हैं।
फिर तो बार-बार उनकी निकटता मिली, प्रवचनों में भी और वार्तालाप में भी। जब वे प्रवचन के लिए अपने आसन पर बैठते हैं, तो उससे पहले श्रोताओं की भीड़ अपना स्थान ग्रहण कर चुकी होती है । बैठते ही सब पर वे एक दृष्टि डालते हैं और आश्चर्य है कि
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तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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