________________
जो अपने को 'अल्ट्रा मार्डन' समझते हैं, वे मुझे तो कहीं से भी 'माडर्न' नहीं दीखते । अत्याधुनिक और 'अप-टू-डेट' हैं स्वामी विद्यानन्द, जो वस्तु-स्वभाव क्षणानुक्षणिक तरतमता में जीते हैं । काल को अपनी स्वभावगत चिक्रिया में बाँधकर वे अपने चैतन्य-देवता के जीवन-व्यापार का संवाहक और दास बना लेते हैं। इस प्रकार वे समय को समयसार में रूपान्तरित कर लेते हैं।
के त्रिताप-सन्तप्त सकल चराचर उसके श्रीचरणों में अभयदान और मुक्ति-लाभ करते थे । प्रशम-मूर्ति स्वामी विद्यानन्द को चलते देखकर, उसी दिगम्बर नरकेसरी की विहार-भंगिमा वार-बार मेरी आँखों में झलकी है। उनके विश्व-धर्म के प्रवचन को सुनकर लगा है कि उनकी वाणी में आर्य ऋषियों का वैश्वानर मूर्तिमान हुआ है।
सिद्धसेन दिवाकर के बाद, मैंने पहली बार एक ऐसे जैन श्रमण को देखा, जो मात्र जैन दर्शन तक सीमित संकीर्ण पदावलि में नहीं बोलता, बल्कि जो किसी कदर, अधिक मुक्त और मौलिक भाषा में विश्वतत्त्व का प्रवचन करता है। मुनीश्वर विद्यानन्द एक सांस में वेद, उपनिषद्, गीता, धम्मपद, बाइबिल, कुरान, ज़न्दवस्ता और समयसार उच्चरित करते हैं । संसार के आज तक के तमाम धर्मों का मौलिक भाव ग्रहण करके उन्हें उन्होंने अपनी अनैकान्तिनी विश्व-दष्टि में समन्वित और समापित किया है। समस्त ब्राह्मण-वाङमय उनके कण्ट से निर्झर की तरह बहता रहता है। वेद, उपनिषद्, गीता, वाल्मीकि, वेदव्यास, वैष्णवों की भगवद्-वाणी, शैवागम, शाक्तागम आदि उनकी मौलिक धर्म-चेतना में, सर्वात्मभाव की रासायनिक प्रक्रिया से तदाकार हो गये हैं।
इस सन्दर्भ में यह ध्यातव्य है कि भगवान् महावीर ने वैदिक परम्परा का विरोध और खण्डन नहीं किया था। अपनी कैवल्य-ज्योति से उसके मर्म को प्रकाशित कर, उसके मिथ्या, स्वार्थी रूढार्थों का भंजन कर, उसे भूमा के सत्यलोक में पुनर्प्रतिष्ठित किया था। यह सच है कि आदिनाथ शंकर, ऋषभदेव, भरतेश्वर, राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध की संयति का ही दूसरा नाम भारतवर्ष है। पर इसी अर्थ में यह भी सत्य है कि भगवान् वेद व्यास के बिना आर्यों की आदिकालीन प्रज्ञा-धारा और भारतीय संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती। दक्षिण कर्नाटक के ब्राह्मण-कुलावतंस विद्यानन्द ने इस देश की आत्मा के इस मर्म को ठीक-ठीक पहचाना है। उन्हें यह पता है कि वर्तमान जिनशासन के सारे ही मूर्धन्य युगन्धर आचार्य ब्राह्मणवंशी थे। भगवान् महावीर के पट्ट-गणधर इन्द्रभूति गौतम तथा अन्य दस गणधर भी तत्कालीन आर्यावर्त के ब्राह्मण-श्रेष्ठ ही थे। और उनकी वैदिक सरस्वती ही जिनवाणी के रूप में प्रवाहित हुई थी। मुनिश्री विद्यानन्द सच्चे अर्थ में महावीर की उसी गणधर परम्परा के एक प्रतिनिधि महाब्राह्मण हैं ।
आज तक के तमाम भारतीय वाङमय में उपलब्ध रामकथा का रासायनिक संदोहन करके, मुनिश्री ने अपनी एक स्वतन्त्र रामायण-कथा तैयार की है। इन्दौर के
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org