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छोड़नेवाला मैं कौन होता हूँ ? जब छुड़ा लेने वाला ऐसा समर्थ सामने बैठा हो । यह गांडीव धनुर्धर अर्जुन के वंश का नहीं रह गया था कि वासुदेव कृष्ण के अंगुलि - निर्देश पर वह शर-सन्धान न करे । सारी व्यवस्था और विधान का जो स्वामी है, वह मुझसे अधिक मेरे अभीष्ट और कल्याण को जानता है । उसके आगे वितर्क कैसा ? उसके प्रति तो समर्पित ही हुआ जा सकता है ।
'सुनो वीरेन्द्र, जब तक कहूँ नहीं, जा नहीं सकोगे । एकान्तवास के समय में भी चाहे जब आ सकते हो । बहुत कुछ देना है।'
'भगवन्, पत्नी और पुत्र भी साथ आये हैं । एकान्त में दर्शन-लाभ चाहते हैं ।' अरे, तो उन्हें ले क्यों नहीं आये ? वे क्या तुम से अलग हैं ? कहना, उनसे मिलना चाहता हूँ ।'
मैंने महाराजश्री के घुटने पर सर डाल दिया । मयूर - पिच्छिका का वह सहलाव, किसी कोमलतम हथेली के दुलार से भी अधिक मृदु, मधुर और गहरा लगा ।
बताऊँगा फिर । मेरे कहना - सुनना है, लेना
अगले दो-तीन दिनों में दूर से पास से मुनिश्री की चर्या और क्रिया-कलाप को देखा । संयुक्त पुरुष ( एण्टीग्रेटेड मेन ) की प्रवृत्ति सम्भवत: कैसी हो सकती है, उसका एक जीता-जागता स्वरूप सामने आया । घड़ी के काँटे पर उनका सारा कार्यक्रम अनायास चलता रहता है । जो अपने को 'अल्ट्रा-मॉडर्न' समझते हैं, वे मुझे तो कहीं से भी 'मॉडर्न' नहीं दीखते । अत्याधुनिक और अप-टू-डेट हैं स्वामी विद्यानन्द, जो वस्तु स्वभाव की क्षणानुक्षणिक तरतमता में जीते हैं । काल को अपनी स्वभावगत चिक्रिया में बाँधकर वे अपने चैतन्य - देवता के जीवन-व्यापार का संवाहक और दास बना लेते हैं । इस प्रकार वे समय को समयसार में रूपान्तरित कर लेते हैं। यही तो आत्मजय और मरणजय की एकमात्र सम्भव प्रक्रिया है । और मुनिश्री विद्यानन्द की जीवन-चर्या इस प्रक्रिया का एक ज्वलन्त उदाहरण है ।
प्रातः काल मन्दिर में देव - दर्शन को जाते हुए, पूर्वाह्न बेला में आहार के लिए गोचरी करते हुए, प्रवचन के समय पंडाल में आते-जाते मैंने मुनिश्री की भव्य विहार मूर्ति देखी । पुलक- रोमांच के साथ बार-बार स्मरण हो आया, आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व एक ऐसा ही नर- शार्दूल आसेतु हिमाचल भारतवर्ष में विचरता दिखायी पड़ा था । अपनी सत्-सन्धानी सिंह गर्जना से उसने तत्कालीन आर्यावर्त की असत्य, अन्याय, शोषण और अत्याचार की आसुरी शक्तियों के तख्ते उलट दिये थे। उसकी 'ऊँकार' ध्वनि और पगचापों से दिक्काल कम्पित होकर आत्मसमर्पण कर देते थे । चिरकाल
तीर्थंकर / अप्रैल १९७४
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