________________
इस धन्यता को, देह की सीमा में समाहित रखना कवि के लिए कठिन हो गया । दुःसाध्य साधन करके ही, आँखों के जल किनारों में थामे रख सका। इतना भर आया था कि, बोल सम्भव न हो रहा था । रुद्ध कण्ठ-स्वर से इतना ही कह सका :
'कृतार्थ हुआ मैं . और मेरा शब्द · · · !'
'सुनो वीरेन्द्र, भगवान् महावीर के आगामी परिनिर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में तुम्हें 'मुक्तिदूत' जैसा ही एक सर्वमनरंजन उपन्यास, भगवान् के जीवन पर लिखना होगा · · ।
__ मैं विस्मित । अपनी ओर से कुछ भी तो नहीं कहना पड़ा । तन-मन की सब मानो ये राई-रत्ती जानते हैं। . . .योगी ने ठीक मेरे मनोकाम्य पर उँगली रखकर, अपनी पारदृष्टि से उसे अभीष्ट रूप दे दिया। वल्लभ और किसे कहते हैं ?
__'महाराजश्री, कवि को भी उसकी खोज थी, जो इस माया-राज्य में चिर उपेक्षित, अनपहचानी उसकी आत्मा को पहचान सके। · श्रीगुरु को पाकर मैं धन्य हुआ। . . '
अस्पृष्ट, अनासक्त वात्सल्य से वे मुझे हेरते रहे । फिर बोले :
'महावीर तुम्हारी कलम से जीवन्त प्रकट होना चाहते हैं । उपन्यास का आरम्भ शीघ्र कर देना होगा !'
'भगवन , जो साध मन में लेकर आया था; वह तो बिन कहे ही आपने पूरी कर दी। लेकिन एक निवेदन है . .'
'बोलो · · !'
'उपन्यास नहीं, महाकाव्य लिखना चाहता हूँ, महावीर पर । 'मक्तिदूत' की नियति को दुहराना नहीं चाहता । वह हिन्दी उपन्यासों के अम्बार में खो गया । साहित्य में वह घटित ही न हो सका।'
'क्या कह रहे हो ? जो मेरे हृदय में बस गया, वह उपन्यास खो गया ? जो हजारों नर-नारी के मन-प्राण पर छा गया, वह साहित्य में घटित न हुआ ? तो फिर साहित्य में घटित होना और किसे कहते हैं ? साहित्य की और कोई परिभाषा तो मैं जानता नहीं? ...।'
विस्मय से अवाक रह गया मैं । आज तक ऐसा कोई जैन साधु वर्तमान में देखा-सूना नहीं था, जो मुग्ध हो सकता हो, जो 'रसो वै सः' के मर्म से परिचित हो । कठोर तप-वैराग्य में लीन और जीवन-जगत् की निःसारता को सांस-सांस में दुहराने वाला जैन श्रमण, साहित्य का ऐसा रसिक और विदग्ध भावक भी हो सकता है, ऐसा कभी सोचा नहीं था।
तीर्थंकर | अप्रैल १९७४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org