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• • लेकिन यह तो आज की बात है। तब तो कवि अपने विश्वंभर की खोज में बेताब भटक ही रहा था। · · योगायोग, कि दिल्ली से 'डि-लक्स' में बम्बई लौटते हुए, आधी रात तूफान के वेग से भागती ट्रेन की खिड़की में से एक सुनसान प्लेटफॉर्म पर ये अक्षर चमक उठे : 'श्री महावीरजी' । · · बिजलियाँ लहरा गयीं नसों में । आँखों में आँसू भर । आये। · · · ओह, प्रभु ने मुझे छू दिया ! थाम लिया।
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स्पष्ट प्रतीति हो गयी, चाँदनपुर के श्री महावीर ने कवि को बुलाया है। अनायास ही उनके अनुग्रह का संस्पर्श प्राप्त हुआ है । भागवद् धर्म की परम्परा में, इसीको तो अहैतुकी भगवद्-कृपा कहा गया है । श्री भगवान् का अनुगृह पाये बिना, उनका साक्षात्कार सम्भव नहीं : और उनका साक्षात्कार हुए बिना, उनकी लीला का गान करने में कोई निरा मानुष कवि समर्थ नहीं हो सकता।
· · ·और १९ अक्तूबर १९७२ की बड़ी भोर हमारी 'बस' चाँदनपुर के श्री महावीर मन्दिर के सिंहपौर पर आ खड़ी हुई । साथ आयी थीं सौ. अनिलारानी और चि. डॉक्टर ज्योतीन्द्र जैन । यथाविधि व्यवस्थित होने पर, स्नानादि से निवृत्त होकर जिनालय के निज मन्दिर में प्रभु के श्रीचरणों में उपस्थित हुआ। एक दृष्टिपात में ही समुचा अस्तित्व, मानो किसी ऐसे अगाध मार्दव की ऊष्मा में पर्यवसित हो गया, कि मन में कसक रहे सारे प्रश्न और प्रतिक्रियाएँ कपूर की तरह उस वातावरण में विगलित हो गये । आँखों से अविरल बह रहे आँसुओं में, जिस परम आश्वासन और आलिंगन की अनुभूति हुई, उसे कौन भाषा कहने में समर्थ हो सकती है ? उस क्षण के बाद उस तीर्थ-भूमि में विचरते हुए सर्वत्र एक अनिर्वच उपस्थिति-बोध से चेतना सुख-विभोर होती रही, और देह, प्राण, इन्द्रियाँ तथा मन, एक अपूर्व एकाग्रता में शान्त और विश्रब्ध हो गये-से लगे। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे किसी दिव्य लोक में अतिक्रान्त हो गया हूँ । भोजन में ऐसा रस और स्वाद, जो मानो महज रसना इन्द्रिय के विषय से परे का हो । . .
विश्राम के बाद तीसरे पहर, मन्दिर प्रांगण में बने एक विशाल पण्डाल में श्रीगुरुप्रवचन का आयोजन था । ठीक समय पर पहुँचकर श्रोता-मण्डल में चुपचाप जा बैठा। पण्डाल के शीर्ष पर निर्मित एक ऊँचे व्यासपीठ के सिंहासन में विराजमान थे श्रीगुरु । उस ओर दृष्टि पड़ते ही हठात् मैं जैसे कला-शिल्प की किसी अज्ञात नैपथ्यशाला में संक्रान्त हो गया । : "दिव्य शिल्प के उस महर्त-क्षण को साक्षात् किया, जब शताब्दियों पूर्व, शिल्पी के एक ही रत्नबाण के आघात से विन्ध्यगिरि पर्वत की चट्टान में गोमटेश्वर आकार लेते चले गये थे। . .
मुनिश्री विद्यानन्द-विशेषांक
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