________________
वारणतरण
श्रावकाचार
॥४१॥
सम्यग्दर्शनका स्वरूप। श्लोक-सप्तप्रकृतिविच्छेदात, शुद्धदृष्टिश्च दृष्टते ।
श्रावकं अव्रतं जैनः, संसानुःखपरान्मुखं ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थ-(सप्त प्रकृति) ऊपर लिखित सातों प्रकृतियोंके (विच्छेदांत् ) सर्वथा क्षय या नाश होजानेसे (शुद्धदृष्टिश्च ) शुष्क आत्मदृष्टि ही अर्थात् शुद्ध क्षायिक संम्यग्दर्शन ही (दृष्टते) आत्मामें दिखलाई पड़ता है। (श्रावकं अव्रतं ) वह अविरति श्रावक होता है (मैनः) वही जैनी है (संसार दुःख परान्मुखं) वही संसारके दुःखोंसे विपरीत सुखका भोगनेवाला है।
विशेषार्थ-सबसे पहले उपशम सम्यक्त होता है। इसकी स्थिति अंतर्मुहूर्त काल है। फिर यदि सम्यकप्रकृतिका उदय हो आता है तो क्षयोपशम सम्पग्दर्शन होजाता है। इसकी स्थिति अधिकसे अधिक छयासठ सागर है। जब अधिक वैराग्य भावना होती है व केवलीया श्रुतकेवलीका समागम होता है तब सातों प्रकृतियोंके नाशसे क्षायिक सम्यक्त पैदा होजाता है। सम्यक्ती जीव चौथे
अविरत सम्यग्दर्शन गुणस्थानमें रहता हुआ यद्यपि व्रतोंका आचरण नहीं कर पाता है तथापि र भावों में इसके वैराग्य, व धर्म प्रेम, श्रद्धा व दया यथार्थ होती है। प्रशम (शांतभाव), संवेग (वैराग्य),
आस्तिक्य (श्रद्धा), अनुकम्पा (दया) ये इसके लक्षण बाहर प्रगट रहते हैं। इसको संसारके दुःख नहीं होते हैं। यह अशुभ कमका बंध नहीं करता है। यदि पहले अन्य आयु नहीं बांधी हो तो . देव आयु ही बांधकर स्वर्गमें उत्तम देव होता है। तथा यह क्षायिक सम्यक्ती जीव तीसरे भव याy चौथे भवमें अवश्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है। क्षायिक सम्यक्तकी अपूर्व महिमा है। अन्य दो सम्यक्त यद्यपि छूटनेवाले हैं तो भी एक दफे जिसको उपशम सम्यदर्शन होजाता है वह अई पुद्गल परिवतन कालसे अधिक संसारमें नहीं रहता है। सम्यकका लाभ होना मोक्षकी कुंजी हाथमें आजाना है।
श्लोक-सम्यकदृष्टिनो जीवः, शुद्धतत्त्वप्रकाशकः ।
परिणामं शुद्धसम्यक्तं, मिथ्यावृष्टि परान्मुखं ॥ ३४ ॥