Book Title: Supasnahachariyam Part 02
Author(s): Lakshmangani, Hiralal Shastri
Publisher: ZZZ Unknown
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भवणपडायाकहा।
२९७ आगंतूणं अह वायसेण पढमम्मि दिवसजामम्मि । वायव्याए दिसाए फलिए सहकाररुक्खम्मि ॥१५७॥ लवियं मंजुलकलयंठिकंटमहुरेण सरविसेसेण । तं सोउं सउणविऊ नरनाहं विन्नवेइ इमं ॥१५८॥ देवीसमागमेणं वद्धावइ देव ! वायसो एस । सउणगंथे भणियं जेण इमं नाह ! निसुणेसु ॥१५९।। सिद्धिभयंचरवत्ताभोयणवुट्टित्थिन?थीलाभे । कहइ लवंतो काओ पुव्वाइसु पढमजामम्मि ॥१६०॥ वेसागमथीलाभं बुट्ठी वत्ता अरीण नासं च । थीलाभमच्छभक्खणअग्गी पूव्वाइ बियजामे ॥१६१।। भयकलहबुटिकारीअरिनिद्धगुरूण आगमो वत्ता । पुब्बाइ तइयपहरे वंभम्मि य कज्जसंसिद्धी ॥१६२॥ भयसुयवत्ताअतिही डमरं थीवंछनिवगुरूपूया । बंभे लेहागमणं पुल्याइसु तुरियपहर म्मि ॥१६३॥ गोहत्थीण पिटे काओ जइ लवइ देव ! थीलाभं । कूवतडे पियदसण नईतडे निवभयं कहइ ॥१६४॥ एवं साउणिएणं सउणसरूवे कहिज्जमाणम्मि । सहसा पारसियसुओ समागओ रायपयमूले ॥१६५॥ नमिउं भगइ नरेसर ! तुह पयपउमाण विनवणहेउं । भवणपडायादेवीसयासओ अहमिहं पत्तो ॥१६६॥ तन्नामसवणतंजायहरिसपुलएण राइणा भणियं । भो कीर ! खीरसकरदक्खाभक्खं करहि ताव ।।१६७।। तो झत्ति तं तहेव य कराविय पुच्छिओ पुणो कीरो । हे कहसु कत्थ दिवा मह इंटा केन चानीया ? ।। तो सो कहेइ निसुणसु नरवर ! देवीए मूलओ सुद्धि । सुरविज्जाहरकीलाझो विझो गिरी अस्थि ॥१६९॥ जो भयिरतियप्तविलयावलयावलिरणिरनेउररवेहिं । हकारइब्व वरतरुणतरुणिजुयलाई कीलत्थं ॥१७०।।
आगत्याथ वायसेन प्रथमे दिवसयामे । वायव्यां दिशि फलिते सहकारवृक्षे ॥१५७॥ लपितं मन्जुलकलकण्ठीकण्ठमधुरेण स्वरविशेषेण । तत् श्रुत्वा शकुनविद् नरनाथं विज्ञपयतीदम् ॥१५॥ देवीसमागमेन वर्धयति देव ! वायस एषः । शकुनयन्थे भणितं येनेदं नाथ ! शृणु ॥१५९॥ सिद्धिभयचरवार्ताभोजनवृष्टिस्त्रीनष्टस्त्रीलाभान् । कथयति लपन काकः पूर्वादिषु प्रथमयामे ॥१६॥ वेश्यागमस्त्रीलाभौ वृष्टिं वार्तामरीणां नाशं च । स्त्रीलाभमत्स्यभक्षणाग्नीन् पूर्वादौ द्वितीययामे ||१६१॥ भवकलहवृष्टिकार्यरिस्निग्धगुरूणामागमं वार्ताम् । पूर्वादौ तृतीयप्रहरे ब्रह्मणि च कार्यसंसिद्धिम् ॥१६२॥ भयसुतवार्ताऽतिथीन् डमरं स्त्रीवाञ्छानृपगुरुपूजाः । ब्रह्मणि लेखागमनं पूर्वादिषु तुर्यप्रहरे ॥१६॥ गोहस्तिनोः पृष्ठे काको यदि लपति देव ! स्त्रीलाभम् । कूपतटे प्रियदर्शनं नदीतटे नृपभयं कथयाति ॥१६४॥ एवं शाकुनिकेन शकुनस्वरूपे कथ्यमाने । सहसा पारसीकशुकः समागतो राजपादमूले ॥१६५॥ नत्वा भणति नरेश्वर ! तव पादपद्मयोविज्ञपनहेतोः । भवनपताकादेवीसकाशतोऽहमिह प्राप्तः ॥१६६॥ तन्नामश्रवणसंजातहर्षपुलकेन राज्ञा भणितम् । भोः कीर ! क्षीरशर्कराद्राक्षाभक्षणं कुरु तावत् ॥१६७॥ ततो झटिति तत्तथैव च कारयित्वा पृष्टः पुनः कीरः । हे कथय क्व दृष्टा ममेष्टा केन चानीता ? ॥१६९।। ततः स कथयति शृणु नरवर ! देव्या मूलतः शुद्धिम् । सुरविद्याधरक्रीडाऽवन्ध्यो विन्ध्यो गिरिरस्ति ॥१६८॥ यो भ्रभितृत्रिदशवनितावलयावलिरणितृनूपुररवैः । हक्कारयतीव वरतरुणतरुणीयुगलानि क्रीडार्थम् ॥१७०॥
१ क. सिद्धि भयं च व।२ ख. भइनि। ३ क. स्व. नइभ ।
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