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श्रावकाचार-संग्रह
गुरोरनमतात् सोऽपि गुरुस्थानमधिष्ठितः । गुरुवृत्ती स्वयं तिष्ठन् वर्तयेदखिलं गणम् ।। १७४ ॥
(इति स्वगुरुस्थानावाप्तिः ।) तत्रारोप्य भरं कृत्स्नं काले कस्मिश्चिदव्यथः। कुर्यादेकविहारीस निःसङ्गत्वात्मभावनाम् ॥ १७५ निःसङ्गवत्तिरेकाको विहरन् स महातपाः । चिकीर्षुरात्मसंस्कारं नान्यं संस्कर्तुमर्हति ।।१७६।। अपि राग समुत्सृज्य शिष्यप्रवचनादिषु । निर्ममत्वकतान: संश्चर्याशुद्धि तदाऽऽप्रयेत् ॥१७७।।
(इति निःसङ्गत्वात्मभावना । ) कृत्वैवमात्मसंस्कारं ततः सल्लेखनोद्यतः । कृतात्मशुद्धिरध्यात्म योगनिर्वाणमाप्नुयात् ।५७८॥ योगो ध्यानं तदर्थो यो यत्नः संवेगपूर्वकः । तमाहुर्योगनिर्वाणसंप्राप्तं परमं तपः ।।१७१ ।। कृत्वा परिकरं योग्यं तनुशोधनपूर्वकम् । शरीरं कर्शयेद्दोषैः समं रागादिभिस्तदा ।।१८०॥ तदेतद्योगनिर्वाणं संन्यासे पूर्वभावना । जीविताशां मृतीच्छां च हित्वा भव्यात्मलन्धये ।। १८१॥ रागद्वेषौ समुत्सृज्य श्रेयोऽवाप्तौ च संशयम् । अनात्मीयेषु चात्मीयसङ्कल्पाद विरमेत्तदा।।१८२॥ नाहं देहो मनो नास्मि न वाणी न च कारणम् । तत्त्रयस्येत्यनुद्विग्नो भजेदन्यत्वभावनाम् ।।१८३॥ अहमेको न मे कश्चिन्नवाहमपि कस्यचित् । इत्यदीनमनाः सम्यगेकत्वमपि भावदेत् ॥१८४॥ कर्तव्य और आचरणका स्वयं पालन करे और समस्त संघसे पालन करावे ॥ १७४ ॥ यह उनतीसवीं स्वगुरुस्थानावाप्ति क्रिया हैं । इसप्रकार सुयोग्य शिष्यपर अपने आचार्य पदका सम्पूर्ण भार सौंपकर किसी भी कालमें व्यथाको नहीं प्राप्त होनेवाला वह साधु अकेला विहार करता हुआ मेरा आत्मा सर्वपरिग्रहसे रहित हैं, ऐसी भावनाको करे ॥ १७५ ।। पूर्ण अपरिग्रहवृत्तिवाला वह महा तपस्वी साधु केवल अपने आत्माका संस्कार करनेका इच्छुक होकर एकाकी विहार करे । वह अन्य साधुके संस्कारको करनेके योग्य नहीं हैं । अर्थात् उसे केवल आत्म-शुद्धिका ही प्रयत्न करना चाहिये, अन्यके उद्धारकी वह चिन्ता न करे ।। १७६ ॥ उसे उस समय शिष्य और शास्त्र-प्रवचन आदि में भी रागको छोडकर और एक मात्र निर्ममत्व-भावनामें निरत होकर अपने चर्याकी शद्धि का आश्रय लेना चाहिये ॥ १७७ ।। यह तीसवीं निःसंगत्वात्मभावना हैं । इसप्रकार आत्म-संस्कारको करके पुनः संल्लेखना धारण करनेके लिए उद्यत होकर आत्म-शुद्धि करते हुए वह साधु अध्यात्मविषयक योगनिर्वाणको प्राप्त होवे ॥ १७८ ।। योग नाम ध्यानका हैं, उसकी प्राप्तिके लिए संवेगपूर्वक जो प्रयत्न किया जाता है, उस परमतपको योगनिर्वाण-सम्प्राप्ति कहते हैं ।। १७९ ।। उस समय उसे समाधिमरणके योग्य सर्वआवश्यक परिकर्म करके विरेचन,वस्तिकर्म आदिके द्वारा शरीर शोधनपूर्वक रागादि दोषोंके साथ अपने शरीरको कृश करना चाहिये ॥ १८० ।। संन्यास धारण करनेके समय इस प्रकारको पूर्व भावना करनेको योगनिर्वाण कहते हैं। इस समय उसे 'भव्य'इस नामकी प्राप्तिके लिए जीनेकी आशा और मरनेकी इच्छाको छोडकर,तथा राग-द्वेषको-दूरकर आत्मकल्याणकी प्राप्तिमे संलग्न रहना चाहिये और अपनी आत्मासे भिन्न समस्त चेतन-अचेतन पदार्थोमें आत्मीय संकल्पको छोड देना चाहिये ॥ १८१-१८२ । उस समय उद्वेगसे रहित होकर परसे भिन्न केवल अन्यत्वभावनाका इसप्रकारसे चिन्तन करे-मैं देह नही हुँ मन नही हूँ, वाणी या वचनरूप भी नही हूँ और न इन तीनोंके कारणरूप ही हूँ।। १८३ ।। तथा एकत्व भावनाका इसप्रकार चिन्तवन करे-"मैं अकेला हूँ, न मेरा कोई हैं और न मैं किसीका हूँ” इस प्रकार दृढ चित्त होकर अपने एकत्वकी भले प्रकार भावना करनी चाहिये ॥१८४॥ उस समय वह योगी नित्य एवं अनन्त सुखके
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