Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 464
________________ वसुन न्दि-प्रावकाचार वय-भंगकारणं होइ जम्मि देसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणणियत्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥ २१५ (१) अय-दंड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं ।। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं ॥ २१६ (२) शिक्षाव्रत-वर्णन जंपरिमाणं कोरइ मंडण-तंबोल-गंध-पुप्फाणांत भोयविरइ भणियं पढमं सिक्खावयं सुत्त। २१७ (३) सगसत्तीए महिला-वत्थाहरणाण जंतु परिमाणं । तं परिभोयणिवुत्ती' विदियं सिक्खावयं जाण ॥ २१८ (४). अतिहिस्स संविभागो तइयं सिक्खावयं मुणेयव्वं तत्थ वि पंचहियाराणेया सुत्ताणुमग्गेण।।२१९ (५) पत्तंतर दायारो दाणविहाणं तहेव दायव्वं । दाणस्स फलं णेया पंचहियारा कमेणेदे ।। २२० (६) दिशाओंमें योजनोंका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओं और विदिशाओंमें गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गुणव्रत है ।। २१४ ।। जिस देशमें रहते हुए व्रत-भंगका कारण उपस्थित हो, उस देशमें नियमसे जो गमननिवृत्ति की जाती है, उसे दूसरा देशवत नामका गुणव्रत जानना चाहिए ।। २१५ ।। लोहेके शस्त्र तलवार, कुदाली वगैरहके, तथा दंडे और पाश (जाल) आदिके बैंचनेका त्याग करना, झूठी तराजू और कूट मान अर्थात् नापने-तोलने आदिके बाँटोंको कम नहीं रखना, तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियोंका संग्रह नहीं करना, सो यह तीसरा अनर्थदण्डत्याग नाम, का गुणव्रत जानना चाहिए। २१६।। मंडन अर्थात् शारीरिक शृङ्गार, ताम्बूल, गध और पुष्पादिकका जो परिमाण किया जाता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्र में भोगविरति नामका प्रथम शिक्षाव्रत कहा गया है ॥ २१६ ।। अपनी शक्तिके अनुसार स्त्री-सेवन और वस्त्र-आभूषणोंका जो परिमाण किया जाता है, उसे परिभोग-निवृति नामका द्वितीय शिक्षाव्रत जानना चाहिए ।। २१८ ।। अतिथिके संविभागको तीसरा शिक्षाबत जानना चाहिए। इस अतिथिसंविभागके पाँच अधिकार उपासकाध्ययन सूत्रके अनुसार (निम्न प्रकार) जानना चाहिए।। २१९॥ पात्रोंका भेद, दातार, दान-विधान, दात योग्य पदार्थ और दानका फल, ये पाँच अधिकार क्रमसे जानना चाहिए।॥२२०।। १ इ. झ. ब. विइयं । २ ब. संगहे। ३ इ. झ. प तइयं, ब. तियई। ४ ब. णियत्ती। ५ झ. विइयं,ब. बीय। (१) यत्र व्रतस्य भंगः स्याद्देशे तत्र प्रयत्नतः । गमनस्य निवृत्तिर्या सा देशविरतिर्मता ।।१४१।। (२) कूटमानतुला-पास-विष-शस्त्रादिकस्य च । क्रूरप्राणिभृता त्यागस्तत्तुतीयं गुणवतम् ।।१४२।। (३) भोगस्य चोपभोगस्य संख्यानं पात्रसत्क्रिया।सल्लेखनेति शिक्षाख्यं व्रतमुक्तं चतुर्विधम्॥१४३॥ यः सकृद् भुज्यते भोगस्ताम्बूलकुमादिकम् । तस्य या क्रियते संख्या भोगसंख्यानमुच्यते ॥ १४४ ।।-गुण० श्राव० (४) उपभोगो मुहुर्भाग्यो वस्त्रस्याभरणादिकः ।या यथाशक्तितः संख्या सोपभोगप्रमोच्यते।।१४५।। (५) स्वस्य पुण्यार्थमन्यस्य रत्नत्रसमृद्धये । यद्दीयतेऽत्र तदानं तत्र पञ्चाधिकारकम् ॥ १४६ ॥ (६) पात्रं दाता दानविधियं दानफल तथा । अधिकारा भवन्त्ये ते दाने पश्च यथाक्रमम् ।। १४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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