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वसुनन्दि-श्रावकाचार
४५३ आयंबिल' णिन्वयडी' एयद्वाणं च एयभत्तं वा । जं कीरइ तं णेयं जहण्णयं पोसहविहाणं ।। २९२॥ सिरहाणुव्वट्टण-गंध-मल्लकेसाइदेहसंकप्पं । अण्णं पि रागहेउं विवज्जए पोसहदिणम्मि ॥ २९३ एवं चउत्थठाणं विवणियं पोसह समासेण । एत्तो कमेण सेसाणि सुणह संखेवओ वोच्छं ॥२९४
सचित्तत्यागप्रतिमा जं बज्जिज्जइ हरियं तुय'-पत्त-पवाल-कंद-फल-बीयं । अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिवित्ति तं ठाणं ॥ २९५*
रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा मण-वयण-काय-कय- कारियाणमोएहि मेहुणं णवधा । दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावओ छहो ।। २१६ (१)
ब्रह्मचर्यप्रतिमा पुवृत्तणवविहाणं पि मेहणं सव्वदा विवज्जतो।
इथिकहाइणिवित्तो सत्तमगुणवंभयारी सो ।। २९७ (२) को यदि करना चाहे, तो उसे भी कर सकता है। किन्तु शेष विधान पूर्वके समान ही जानना चाहिए।। २९१ ।। जो अष्टमी आदि पर्वके दिन आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्तको करता है, उसे जघन्य प्रोषध विधान जानना चाहिए ॥ २९२ ॥ (विशेषार्थ परिशिष्टमें देखो।) प्रोषधके दिन शिरसे स्नान करना, उबटना करना, सुगंधित द्रव्य लगाना, माला पहनना, बालों आदिका सजाना, देहका संस्कार करना, तथा अन्य भी रागके कारणोंको छोड देना चाहिए।।२९३॥ इस प्रकार प्रोषध नामका चौथा प्रतिमास्थान संक्षेपसे वर्णन किया । अब इससे आगे शेष प्रतिमास्थानोंको संक्षेपसे कहूँगा, सो सुनो ।। २९४ ।।
जहाँपर हरित त्वक् (छाल), पत्र, प्रवाल, कंद, फल, बीज, और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है, वह सचित्त-विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमास्थान है ।। २९५ ।। जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना, इन नौ प्रकारोंसे दिन में मैथुनका त्याग करता है, वह प्रतिमारूप गुणस्थानमें छठा श्रावक है, अर्थात् छठी प्रतिमाधारा है ।। २९६ ।। जो पूर्वोक्त नौ प्रकारके मैथुनको सर्वदा त्याग करता हुआ स्त्रीकथा आदिसे भी निवृत्त हो जाता है, वह सातवे प्रतिमारूप गुणका
१ आयंबिल-अम्लं चतुर्थो रसः, स एव प्रायेण व्यंजने यत्र भोजने ओदन-कुल्माषा-सक्तुप्रभृतिके तदाचामाम्लम् । आयंबिलमपि तिविहं उक्किट्र-जहण्ण-मज्झिमभेदेहि । तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ ॥१०२॥ मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोंवच्चलं च विडलवणे । हिगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ।।१०३।। अभिधानराजेन्द्र । २ ब. णिग्घियडी। ३ इ. झ तय०। ४ ब. किरियाण। ५ ब. सव्वहा । ६ झ. ब. णियत्तो।
* स्नानमद्वर्त्तनं गन्धं माल्यं चैव विलेपनम् । यच्यान्यद् रागहेतुः स्याद्वज्यं तत्प्रोषधोऽखिलम् ॥१७६॥ * मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम् । अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतो गृही ॥ १७८ ॥
-गुण. श्राव (१) स दिवा-ब्रह्मचारी यो दिवा स्त्रीसंगमं त्यजेत् । (२) स सदा ब्रह्मचारी यः स्त्रीसंगं नवधा त्यजत् ।। १७९ ॥
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