Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 470
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार सल्लेखना - वर्णन धरिऊन वत्थमेत्तं परिग्गहं छंडिऊण अवसेसं । सगिहे जिणालए वा तिविहाहारस्स वोसरणं । २७१ जं कुइ गुरुसयासम्म' सम्ममालोइऊण तिविहेण । सल्लेखणं चउत्थं सुत्ते सिक्खावयं भणियं ॥ २७२ एवं वारसभेयं वयठाणं वण्णियं मए विदियं सामाइयं तइज्जं ठाणं संखेवओ वोच्छं ।। २७३ सामायिक प्रतिमा 1 ★ होऊण सुई चेइयगिहम्मि सगिहे व चेइयहिमुहो । अण्णत्थ सुइपए से पुव्वमहो उत्तरमहो वा ॥ २७४ जिणवयण - धम्म- चेइय-परमेट्ठि- जिनालयाण णिच्चपि खं बंदणं तियालं कोरइ सामाइयं तं खु ।। काउस्सग्गम्हि ठिओ लाहालाहं च सत्तु-मित्तं च संजोय-विप्पजोयं तिण-कंचण-चंदणं वासि २७६ जो पसइ समभावं मणम्मि धरिऊण पंचणवयारं । वर अटूपाडिहेरेहि संजयं जिणसरूवं च ॥ २७७ सिद्धसरूवं झायइ अहवा झाणुत्तमं ससंवेयं । खण मेक्कमविचलंगो उत्तमसामाइयं तस्स ।। २७८ एवं तइयं ठाणं भणियं सामाइयं समासेण । पोसहविहि चउत्थं ठाणं एत्तो पवक्खामि ॥। २७९ प्रोषधप्रतिमा उत्तम - मज्झ जहणं तिविहं पोसहविहाण मुद्दिट्ठ। सगसत्ताए मासम्मि चउस्सु पव्वेसु कायव्वं २८० वस्त्रमात्र परिग्रहको रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रहको छोडकर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरुके समीपमें मन-वचन-कायसे अपनी भले प्रकार आलोचना करके पानके सिवाय शष तीन प्रकारके आहारका त्याग करता है, उसे उपासकाध्ययन सूत्रमें सल्लेखना नामका चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है ।। २७१ - २७२ । इस प्रकार बारह भेदवाले दूसरे व्रतस्थानका मैंने वर्णन किया। अब सामायिक नामके तीसरे स्थानको में संक्षेपसे कहूँगा ।। २७३ ।। स्नान आदि से शुद्ध होकर चैत्यालय में अथवा अपने ही घरमें प्रतिमाके सन्मुख होकर, अथवा अन्य पवित्र स्थान में पूर्वमुख या उत्तरमुख होकर जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, पंच परमेष्ठी और कृत्रिम - अकृत्रिम जिनालयोंकी जो नित्य त्रिकाल वदना की जाता है, वह सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान है ।। २७४ २७५ जो श्रावक कार्योत्सर्ग में स्थित होकर लाभ-अलाभको शत्रु-मित्रको, इष्टवियोग अनिष्ट संयोगको, तृण- कांचनको, चन्दनको और कुठारको समभावसे देखता है, और मनमें पंच नमस्कारमंत्रको धारण कर उत्तम अष्ट प्रतिहार्योंसे संयुक्त अर्हन्तजिनके स्वरूपको और सिद्ध भगवान्‌ के स्वखपको ध्यान करता है, अथवा संवेग-सहित अविचल - अग होकर एक क्षण को भी उत्तम ध्यान करता है, उसके उत्तम सामायिक होती है ।। २७६ - २७८ ।। इस प्रकार सामायिक नामका तीसरा प्रतिमास्थान संक्षेपसे कहा । अब इससे आगे प्रोषधविधि मामके चौथे प्रतिमास्थानको कहूँगा ।। २७९ ।। उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारका प्रोषध-विधान कहा गया है। यह श्रावक ४५१ Jain Education International 1 १ इ. पयासिम्मि । २ इ. विइयं, ब बीयं । ३ इ. तइयं, म. तिदीयं । ४ झ करेइ । ५ कुठारं । ६ इ. मज्झम- जहणं । ७ प पव्वसु । ★ वैयप्रयं त्रिविधं त्यक्त्वा त्यक्त्वाऽऽरम्भपरिग्रहम् । स्नानादिना विशुद्धांगशुद्धया सामायिकं भजेत् ।। १६४ ।। गहे जिनालयेऽन्यत्र प्रदेशे वाऽनघे शुची । उपविष्टः स्थिता वापि योग्यकालसमाश्रितम् ॥ १६५ ॥ कायोत्सर्गस्थितो भूत्वा ध्यायेतंचपदी हृदि । गुरून् पञ्चाथवा सिद्धस्वरूपं चिन्तयेत्सुधीः ।। १६७ ।। $ मामे नत्वारि पर्वाणि प्रोषधाख्यानि तानि च । यत्तत्रोपोषण प्रोषधोपवासस्तदुच्यते ।। १६९ ।। -गुण० श्राव० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526