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सावयधम्मदोहा
मज्जु मंसु महु परिहरहि करि पंचुंबर दूरि । आयहं ' अंतरि अट्ठहंमि तस उत्पज्जई भूरि ॥ २२ महु आसायउ थोडउ वि जासइ पुष्णु बहुत्तु । वइसाणरहं तिडिक्कड' वि काणणु डहरू महंतु ||२३ arrass सनियहं महुपरिहरियउ होइ । जं कीरइ तं कारियह एहु अहाणउ लोइ ||२४ सब इ कुसुनई छंडियई करि पंचुंबर-चाउ ।
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हुति विमुक्कई मंडणई जइ मुक्कउ अणुराउ ॥ २५
अट्ठइ पालइ मूलगुण पिवइ जु गालिउ णीरु । अह चित्तें सुविसुद्धइणा सुज्झइ 'सव्य सरीरु ॥२६ जेण अगालिउ जल पियउ जाणिज्जइ ण पवाणु । जो तं पियइ अगालिउ सो धीवरहं पहाणु ॥२७ आमिससरिसउ भासियउ सो अंधउ जो खाइ । दोहि मुहुर्त्ताह उप्पारहि लोणिउ सम्मुच्छाइ ॥२८ संगे मज्जामिसरयहं मइलिज्जइ सम्मत्तु | अंजणगिरिसंगे ससिहि किरणई काला हुति ॥२९ अच्छउ मोयणु ताहं घरि सिट्ठहं वयणु ण जुत्तु ताहं समउ जं 'वासियई मइलिज्जइ सम्मसु । ३० तामच्छउ तहं मंडयहु पक्कासण लित्ताहं । हुति ण जोग्गइं सावयहं तहं भोयण पत्ताहं ॥ ३१ चम्मट्ठई पीयई जलई तामच्छउ दूरेण । दंसणसुद्धि न होइ तसु खद्धइ घियतिल्लेण ॥ ३२
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मद्य मांस और मधुका परिहार करो, पाँच उदुम्बरफलोंको दूर करो। इन आठोंके भीतर भारी त्रसजीव उत्पन्न होते है ॥ २२ ॥ थोडा सा भी खाया हुआ मधु बहुत पुण्यका नाश करता है । अग्निका छोटा सा भी तिलंगा महावनोंको भी जला देता हैं ।। २३ ॥ मधु खानेका दूसरोंको उपदेश न देनेसे, तथा अनुमोदना न करनेसे मधुका परिहार होता है। क्योंकि जो स्वयं करता है और दूसरों से कराता है, वे दोनों समान हैं, यह कहावत लोक में प्रसिद्ध है || २४ ॥ सर्व प्रकारके पुष्पोंके खानेका त्याग कर, तभी पंच उदुम्बरोंका त्याग संभव होगा । यदि आभूषण पहिरनेका अनुराग छूट जाय तो आभूषण स्वयं ही छूट जाते हैं ||२५|| इस प्रकार जो आठ मूल गुणोंको पालता है और जो वस्त्र - गालित जल पीता हैं, तथा जिसका चित्त सुविशुद्ध है, उसका सर्वशरीर शुद्ध है || २६ ॥ जो अगालित जल पीता है, वह जिन आज्ञाको नहीं जानता है । जो अगालित जलको पीता है, वह धीवरों में प्रधान है ||२७||
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दो मुहूर्त्तके ऊपर लोनी (मक्खन) में सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसलिए वह मांस-सदृश कही गई है। जो उस लोनीको खाता हैं, वह अन्धा हैं, अर्थात् हेय-उपादेयके ज्ञानसे रहित है || २८ । मद्य और मांस सेवनमें निरत पुरुषोंके संगसे सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है । अंजनगिरिके संगसे चन्द्रकी धवल किरणे भी काली हो जाती है ।। २९ । उन मद्य मांग-भोजियोंके घरमें भोजन करना तो दूर रहा, शिष्टजनों को उनके साथ वचन बोलना भी योग्य नहीं हैं । जो उन लोगों के साथ निवास करते हैं, उनका सम्यक्त्व मलिन हो जाता है ||३०||उन मद्य मांसभाजियोंके घरके पकाये हुए भोजनसे लिप्त भाण्ड (वर्तन ) तो रहने ही दो, उनके ( सूखे ) कांसे आदके पात्रों में भोजन बनाना या करना भी श्रावकके योग्य नहीं हैं ॥ ३१ ॥
जो चर्च में रखे हुए जलको पीता हैं, वह तो दूर ही रहे, जो चर्ममें रखे घी और तेलको
४ साइ |
१ द आर्याह । २ म तिडिक्किङउ । ३ ब टि. उपदेशेन विना अनुमोदेन विना ।
५ झ. सुच: इ । ६ झ म जें क. ७ ब टि. तेषां मद्यनांसरतानां पुरुषाणां भाण्डानां भोजनं तावदास्ताम्, सा वार्ता तिष्ठतु । कथम्भूतानां भाण्डानां पक्वाशन लिप्तानाम् । ८ ब तेषां कांस्यादिपात्राणां अपि भोजनं न यवतम् ।
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