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वसुनन्दि-श्रावकाचार
५०३ दुल्लहु लहि मणुयत्तणउ भोयहं पेरिउ जेण । लोहकज्जि दुत्तरतरणि णाव बियारिय तेण ॥२२१ दुण्णि सयइं विसत्तरई पढियइं सिवगइ दिति । धम्मधेणु संदोहयहं वर उ दिति ण भंति ॥२२२ णयमुरसेहरमणिकिरणपाणिय पयपोमाइं। 'संघहं जाहं समुल्लसहि ते जिण दितु सुहाई ॥२२३
दसणु णाण चरित्तु तउ रिसि गुरु जिणवर देउ । बोहिसमाहिए सहु मरणु भवि हज्जउ एउ ।। २२४
इय सावयधम्मदोहा समत्ता।
और रजके लिए चिन्तामणि रत्नको फोडा, ऐसा समझना चाहिए ।।२२२॥ दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर जो भोगोंमें प्रेरित रहा, उसने लोहाके लिए दुस्तर तरणि अर्थात् उत्तम नावको तोड डाला ॥२२१।। यं उपर्युक्त दो सौ बीस दोहे पढनेपर शिवगति देते हैं । धर्मरूपी कामधेनु उत्तम प्रकारसे दुहनेवाले लोगोंको वर श्रेष्ठ पय (दुध पक्षान्तरमें पद) देती है, इसमें भ्रान्ति नहीं है ॥२२॥ नमस्कार करते हुए देवोंके मुकुटोंकी मणियोंकी किरणोंसे जिनके चरणकमल प्रकाशमान हैं और जो चतुर्विध संघको उल्लासके करनेवाले है, ऐसे वे जिनदेव सुखको देवें ॥२२३।। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, ऋषि-गुरु, जिनवर-देव और बोधि-समाधि-सहित मरण, ये मुझे भव-भवमें प्राप्त होवें ।२२४।।
इति श्रीश्रावकधर्म दोहा समाप्त ।
१ ब टि. संघस्य उल्लासं कुर्वन्ति ।
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